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हेमचन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा
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बहुत और शब्द (शुद्ध) थोड़े हैं, क्योंकि एक-एक शब्द के बहुत अपभ्रंश है, जैसे गौ शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका इत्यादि अपभ्रंश हैं । यहाँ पर 'अपभ्रंश' शब्द अपशब्द के अर्थ में ही व्यवहृत है, और अपशब्द अर्थ भी संस्कृत व्याकरण से असिद्ध शब्द है। उक्त उदाहरणों में गावी, गोणी इन दो शब्दों का प्रयोग प्राचीन जैन सूत्र ग्रन्थों में पाया जाता है । चण्ड तथा आचार्य हेमचन्द्र आदि प्राकृत वैयाकरणों ने भी ये दो शब्द अपने-अपने प्राकृत व्याकरणों में लक्षण द्वारा सिद्ध किये हैं । दण्डी ने अपने 'काव्यादर्श' में पहले प्राकृत और अपभ्रंश का अलग-अलग निर्देश करते हुए काव्यों में व्यवहृत आभीर प्रभृति की भाषा को अपभ्रंश कहा है और बाद में यह लिखा है कि 'शास्त्र में संस्कृत भिन्न सभी भाषायें अपभ्रंश कही गयीं हैं३ । प्राकृत वैयाकरणों के मत में अपभ्रंश भाषा प्राकृत का ही एक अवान्तर भेद है । 'काव्यालंकार' की टीका में नमिसाधु ने लिखा है कि “प्राकृतमेवापभ्रंशः” (२-१२)अर्थात् अपभ्रश भी शौरसेनी, मागधी आदि की तरह एक प्रकार की प्राकृत ही है । उक्त क्रमिक उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि पतञ्जलि के समय में जिस अपभ्रंश शब्द का 'संस्कृत व्याकरण असिद्ध' इस सामान्य अर्थ में प्रयोग होता था उसने आगे जाकर क्रमशः प्राकृत का एक भेद के विशेष अर्थ को धारण किया।
अपभ्रंश भाषा के निदर्शन 'विक्रमोर्वशीयम्' 'धर्माभ्युदय' आदि नाट्यग्रन्थों में, 'हरिवंशपुराण' (स्वयम्भू), 'पउमचरिउ' (स्वयम्भू), 'भविसयत्तकहा' (धनपाल), 'संजम मंजरी', 'महापुराण' (जिनसेन), 'जसहर चरिउ', 'णायकुमार चरिउ' (पुष्पदन्त), 'कथाकोष' (हरिषेण), 'पार्श्वपुराण' (चन्द्रकीर्ति), 'सुदंसण-चरिउ' (नयनं दि), 'करकंड चरिउ' (कनकामर), 'जयतिहुअणस्तोत्र', 'द लासवईकहा', 'सणंकुमार चरिउ' (हरिभद्र), 'सुपासनाहचरित', 'कुमारपाल चरित' (हेमचन्द्र), 'कुमारपाल प्रतिबोध', 'उपदेशतरंगिणी', प्रभृति काव्य ग्रन्थों में 'प्राकृत लक्षण', 'सिद्धहेम शब्दानुशासन' (अष्टम अध्याय), 'संक्षिप्तसार', 'षड्भाषाचन्द्रिका', 'प्राकृत सर्वस्व' आदि व्याकरणों में और 'प्राकृत पिङ्गल', 'छन्दोऽनुशासन' आदि छन्द-ग्रन्थों में पाये जाते हैं । अधिकतर अपभ्रंश साहित्य
जैन भाण्डागारों में प्राप्त हुआ है अर्थात् अधिकतर जैन अपभ्रश साहित्य सामने आया है । जैनों द्वारा रचित पुराणसाहित्य,आख्यानक काव्य,कथा-काव्य १- खारीणियाओ गावीओ, गोणं वियालं (आचा २,४,५); गोवीणं सगेल्लं
(व्यवहारसूत्र उ. ४) णगरगावीओ (वि पा १,२-पम २६) २- प्राकृत लक्षण २,१६ तथा हे. प्रा. २, १७४ ३- काव्यादर्श १-३६