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आचार्य हेमचन्द्र
सर्वाङगपूर्ण प्रासाद है । उस प्रासाद में अश्वपति, गजपति, नरपति इत्यादि बड़ेबड़े राजाओं की मूर्तियाँ बनवाकर हैं और उनके सामने हाथ जोड़े हुए अपनी मूर्ति भी बनवायी है। सिद्धराज ने सहस्रलिङग सरोवर बनवाया । कुमारपाल ने सोमेश्वर-सोमनाथ मन्दिर का उद्धार किया । कुमारपाल ने १४४० नये विहार बनवाये। त्रिभुवनपाल विहार में पार्श्वनाथ की मूर्ति की स्थापना करवायी। इसके अतिरिक्त मूषक विहार, यूकाविहार, करम्बकविहार, झोलिका विहार आदि विहार बनवाये । संसार-प्रसिद्ध ऐतिहासिक सोमनाथ के मन्दिर का पुनर्निमाण आचार्य हेमचन्द्र की प्रेरणा से ही हुआ था। 'प्रबन्धचिन्तामणि' में इसका उल्लेख है । पञ्चकूल के मन्दिर का निर्माण पूर्ण हो जाने पर आचार्य हेमचन्द्र और कुमारपाल दोनों ही देवदर्शन करने के लिये गये थे। आचार्य हेमचन्द्र के प्रभाव एवं प्रेरणा से गुजरात तथा राजस्थान में बने मन्दिर एवं विहार कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। उनमें वास्तुकला की सारी शैलियों का समावेश हुआ है । उस समय के स्थापत्य निर्माण में द्राविड़ तथा आर्य-शैलियों का समन्वय किया गया है । जनों द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ अथवा मन्दिरों में पथ के रूप से निर्मित स्तम्भ उनकी कला के यश के परिचायक हैं । स्तम्भ पर नक्काशी भी पायी जाती है । आबू पहाड़ पर स्थित श्वेत पाषाणों से बना हुआ जैन मन्दिर स्थापत्य के वैभव का सूचक है । मन्दिरों के गुम्बद अष्ट-कोणीय हैं । मेहराबों की रचना कुछ इस तरह की है जिससे आठों स्तम्भ उस गुम्बद के अन्तरङ्ग की शोभा बढ़ाते हैं । इस गुम्बद के भीतरी भाग के अलङ्कार चक्र एकहरे, दोहरे, तिहरे होकर गुम्बद के केन्द्र तक पहुँचे हैं । इस अलङ्कार चक्र का वैचित्र्य तथा उसकी समृद्धि दोनों उच्चकोटि की सुरुचि का संवर्धन तथा पोषण करते हैं । गुजरात के बड़नगर के सुन्दर तोरणों या प्रवेश द्वार की भव्यता, खुदाई की अनुपम पटुता तथा शोभा भारतीय स्थापत्यकला को संसार की आंखों में निःसन्देह ऊचा उठाती है। इस युग में भवन-निर्माण में भी जैनों ने काफी रुचि बतलायी और इस सब के प्रेरणास्रोत आचार्य हेमचन्द्र थे । व्याकरण शास्त्र में हेमचन्द्र का योगदान -मालव और गुजरात में राजनीतिक ईर्ष्या शताब्दियों से चली आ रही था । राजनीतिक ईर्ष्या की यह भावना आगे जाकर साहित्यिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र तक व्यापक हो गयी थी। भोजदेव के लगभग ८० वर्ष पश्चात् गुजरात के प्रसिद्ध राजा सिद्धराज जयसिंह मालवा के भोजवंशीय राजा यशोवर्म देव को युद्ध में परास्त करके अवन्तिनाथ कहलाने लगा १-प्रबन्धचिन्तामणि तथा भारतीय वास्तुशास्त्र पृ. ७२-डी. एन. शुक्ल ।