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दार्शनिक एवं धार्मिक-ग्रन्थ
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हो रहा था उसमें आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों ने अपूर्व योगदान देकर विकास में मदद दी है। उनके ग्रन्थों ने संस्कृत के धार्मिक साहित्य में भक्ति के साथ श्रमण-धर्म का एवं तदर्थ कठोर साधानायुक्त आचार धर्म का प्रचार किया। अतएव संस्कृत के धार्मिक साहित्य में आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान सदैव अक्षुण्ण रहेगा । तत्कालीन समाज में निद्रालस्य को भगाकर जाग्रति उत्पन्न करने का श्रेय आचार्य जी के धार्मिक ग्रन्थों को भी है । उनके योगशास्त्र के अध्ययन एवं अभ्यास से आध्यात्मिक प्रगति की प्रेरणा तो मिलती ही है । ऐहिक जीवन में सात्विक जीवन व्यतीत कर दीर्घायु पाने में एवं सदाचार से आदर्श नागरिक निर्माण कर समूचे समाज को सुव्यवस्थित करने में आचार्य हेमचन्द्र ने अपूर्व योगदान किया है । संक्षेप में राष्ट्रोत्थान के लिए राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने में आचार्य हेमचन्द्र के धार्मिक ग्रन्थ पूर्णतया सक्षम हैं। इस दृष्टि से संस्कृत के धार्मिक साहित्य में आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों का स्थान सदा ही अनुकरणीय रहेगा।
जैन धर्म का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है । यह अधिकांशतः प्राकृत में है। सूत्र काल में जब अन्य दर्शनों ने जैन-मत की आलोचना की तब जनों ने अपने मत के संरक्षण के लिए संस्कृत भाषा को अपनाया। इस प्रकार संस्कृत में भी जैन साहित्य का विकास हुआ है। प्राचीनतम धर्म ग्रन्थों में चतुर्दशपूर्व और एकादश अंग गिनाये जाते हैं। लेकिन पूर्व ग्रन्थ अभी लुप्त हो गये हैं। उनके बाद क्रमश: उपांग, प्रकीर्ण सूत्र, इत्यादि नाना श्रेणी के ग्रन्थ लिखे गये हैं। संस्कृत में उमास्वाति का 'तत्वार्थाधिगमसूत्र' सिद्धसेन दिवाकर का 'न्यायावतार' नैमिचन्द्र का 'द्रव्यसङ्ग्रह' मल्लिसेन की 'स्याद्वादमञ्जरी' प्रभाचन्द्र का 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' आदि प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ हैं।
___ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने पूर्ववर्ती सभी आचार्यों के धार्मिक साहित्य का समुचित उपयोग किया और उसी परम्परा को पुष्ट करते हुए उसे विकसित करते हुए, उसे और आगे बढ़ाया है। प्राचीन काल में जैन वर्ग तात्विक विचारों के नाम पर मानो दारिद्रय ही था । केवल कायिकतप, अशन, त्यागपर विशेष जोर दिया जाता था। आभ्यन्तर तप में स्वाध्याय लाचारी से आ गया था। केवल असन त्याग से शरीर तो जीर्ण होता ही है, ज्ञान भी जीर्ण, कृशकाय, मरणासन्न हो जाता है, यह प्रतीति जैन पुराण पुरुष को दूसरों की अपेक्षा बहुत विलम्ब से हुई। उमास्वाति ने सर्व प्रथम इस अनुभूति को व्यक्त किया। उमास्वाति से जैन देह में दर्शानात्मा ने प्रवेश किया । कुछ ज्ञान की चेतना प्रस्फुटित हुई जो आगे