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आचार्य हेमचन्द्र
धार्मिक साहित्य में योगशास्त्र का स्थान-संस्कृत का धार्मिक साहित्य सुदूर वैदिककाल से आरम्भ होता है। वेदों में जो कर्मकाण्ड विषयक साहित्य है वही प्राचीनतम धार्मिक साहित्य है। यजुर्वेद तथा ब्राह्मण-ग्रन्थों से यह साहित्य विपुलता से प्राप्त होता है । उसी प्रकार स्मृतिकाल में या सूत्रकाल में संस्कृत में धार्मिक साहित्य की सबसे अधिक समृद्धि हुई । इसके अन्तर्गत यज्ञसंस्था को स्थिर रखने के लिए तदनुकूल आचार-धर्म पर विशेष जोर दिया गया है, तथा वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा की गयी है।
इस काल में धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत विशेषतः कल्पसूत्र तथा गृह्यसूत्र आते हैं । श्रोतसूत्र अथवा कल्पसूत्र में वेदोक्त कर्मकाण्ड का ही वर्णन है तथा गृह्यसूत्रों में चातुर्वण्यों के आचार-धर्म का वर्णन है । उसी समय बहुत से स्मृति ग्रन्थ भी लिखे गये जिनमें भी आचार-धर्म की प्रमुखता है।
जैन धर्म भी श्रमण प्रधान है जिसमें आचरण को प्रमुखता दी गयी है । केवल वैदिक कर्मकाण्ड के प्रतिबन्ध एवं उसके हिंसा सम्बन्धी विधानों को छोड़कर जैन धर्म एक प्रकार से ब्राह्मण धर्म को ही स्वीकार करता है । सत्य, अहिंसा, तप, त्याग, साधना, वैराग्य आदि बातें जैन धर्म में वेदान्त के सदृश ही हैं। इस दृष्टि से आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों का संस्कृत के धार्मिक साहित्य मे विशिष्ट स्थान है । आचार्य जी अपने योगशास्त्र में कर्म-सिद्धान्त की प्रतिष्ठा करते हैं, तथा आत्म-चिन्तन के लिए श्रवण, मनन, निदिध्यास पर जोर देते हैं । आत्मा की सत्ता एवं साक्षात्कार के लिए आत्मा के विकास पर आचार्य हेमचन्द्र बाह्मण धर्म के समान ही जोर देते हैं । आत्मा के विकास के अनुसार ही पंच-महाव्रत इत्यादि द्वादश-व्रतों का उन्होंने योगशास्त्र में वर्णन किया है । अतः हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र से न केवल जैनियों की आत्मसाधना करने की प्रेरणा की अपितु नैष्कर्म्य के प्रति आसक्त हिन्दूधर्म में भी आत्मसाधना की प्रेरणा की.। योगशास्त्र में सभी गृहस्थों के लिए गृहस्थ जीवन में आत्म-साधना करने की प्रेरणा दी है और इस प्रकार पुरुषार्थ से दूर रहने वाले समाज को उन्होंने पुरुषार्थ की प्रेरणा दी । उनका धर्म केवल उन पुरुषों के लिए है जो वीर और दृढ़चित्त है। इनका मूल मन्त्र मानो स्वावलम्बन है । इसलिए ये मुक्तात्मा को 'जिन' या 'वीर' कहते हैं।
___ संस्कृत का धार्मिक साहित्य अपनी घिसी- पिटी प्राचीन परम्परा को छोड़कर वैष्णवधर्म अथवा भक्ति सम्प्रदाय के रूप में नया मोड़ ले रहा था । हेमचन्द्र का जीवन एवं साहित्य इस सम्प्रदाय के साथ आचार-धर्म में पर्याप्त साम्य रखता था। इस नयी दिशा में संस्कृत धार्मिक साहित्य का जो विकास