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दार्शनिक एवं धार्मिक-ग्रन्थ
होता है।
पदस्थ ध्यानयोग का फल वर्णन करते हुए हेमसूरि कहते हैं कि ध्यान से योगे वीतराग होता है । इसके अतिरिक्त श्रम को तो केवल ग्रन्थ विस्तार ही समझना चाहिये । मन्त्र विद्या के वर्ण और पद की आवश्यकता हो तो विश्लेषण करना अर्थात् बिना सन्धिवाले पदों को भी प्रयोग में लाना चाहिये क्योंकि वैसा करने से लक्ष्य वस्तु अधिक स्पष्ट होती है। इस जैन शासन में मन्त्ररूपी तत्वरत्न का प्राचीन गणघरों के प्रमुख पुरुषों द्वारा स्वीकार किये हुए हैं। यह ज्ञान बुद्धिमानों को भी प्रकाश देते हैं । इसलिए ये मन्त्र अनेक भव के क्लेशों का नाश करने के लिए प्रकाशित किए गये हैं ।
__ योगशास्त्र के नवम और दशम प्रकाश में रूपस्थ और रूपवजित ध्यान के प्रकारों का वर्णन है, परन्तु उसके साथ शक्ति-वाद का सम्बन्ध नहीं है । उसके बाद की शुक्लध्यान की प्रक्रिया भी शक्तिवाद के साथ सम्बन्ध नहीं रखती। सारांश यह है कि ऐसा प्रतीत होता है कि पिण्डस्थ और पदस्थ ध्यान योग में जैनों को तन्त्र-साधना और तन्त्र-शक्ति को स्वीकारा है और मूल वस्तु की शक्ति को देवता भाव से अङ्गीकार किया गया है । जैनों में भी मलिन विद्या और शुद्ध विद्या का होना सम्भव है । हेमचन्द्रसूरि ने शुद्ध विद्या पर ही जोर दिया है। श्री विंटरनीज अपने भारतीय साहित्य के इतिहास में लिखते हैं कि हेमचन्द्र का 'योगशास्त्र' केवल ध्यानयोग नहीं है अपितु सामान्य धर्माचरण की शिक्षा है । श्री वरदाचारी भी इसी प्रकार का मत प्रकट करते हैं ।
१-"योगशास्त्र of Hemchandra does not mean merely meditation
or absorption but religions exercise in general, the whole effort which the pious must made. The work contains complete doctrine of duties. The actual ut takes about 1/10 of the whole commentary. Hemchandra is well versed in Brahminical literature and quotes the verses from Mapu." History of Indian Literature by Winternitz, vol II; Page 511, 569, 571. तथा योगशास्त्र gives an account of duties of Jains and rigid practices peculiar to the asectic tempermanent of Jains" --History of Sanskrit Litrature by Varadachari, Page 101