________________
१६२
आचार्य हेमचन्द्र
क्षुद्र योगिनियाँ बाध नहीं कर सकतीं और हिंस्र स्वभाव के प्राणी अगर उसके पास आकर खड़े हो जाये तो स्तम्भित हो खड़े रह जाते हैं । जैन ध्यान योग का हेमचन्द्र सूरि के अध्यात्मोपनिषद नामान्तरवाले योगशास्त्र में अच्छी तरह से प्रतिपादन किया गया है।
पिण्डस्थ ध्यान के बाद दूसरा ध्यान पदस्थ वर्ग का होता है। इस ध्यान में हिन्दुओं के षट्चक्र वेध की पद्धति के अनुसार वर्णमयी देवता का चिन्तन होता है । इस ध्यानयोग में हिन्दुओं के मन्त्र-शास्त्र की सम्पूर्ण पद्धति स्वीकार की हुई प्रतीत होती है। नाभिस्थान में षोडशदल में सोलह स्वर-मात्राएँ, हृदयस्थान में २४ दल में मध्य कणिका के साथ में २५ अक्षर और मूल पंकज में अकचटतपयश वर्णाष्टक को बनाकर मातृ ध्यान का विधान किया गया है। इस मातृ के ध्यान को सिद्ध करने वाले को नष्ट पदार्थों का तत्काल भान होता है। फिर नाभिस्कंद के नीचे अष्टदल पद्म की भावना करके, उसमें वर्गाष्टक बनाकर प्रत्येक दल की सन्धि में माया प्रणव के साथ अर्हन् पद बनाकर, ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उच्चार से नाभि, हृदय, कण्ठ आदि स्थानों को सुषुम्ना मार्ग से अपने जीव को ऊर्ध्वगामी करना और उसके अन्तर में यह चिन्तन करना कि अन्तरात्मा का शोधन होता है। तत्पश्चात् षोडशदल पद्म में सुधा से प्लावित अपनी अन्तरात्मा को १६ विद्या देवियों के साथ १६ दलो में बैठाकर यह भावना करना कि अमृत भाव मिलता है, । अन्त में ध्यान के आवेश से “सोऽहम्" "सोऽहम्" शब्द से अपने को अर्हत् के रूप में अनुभव करने के लिए मूर्घा में प्रयत्न करना। इस प्रकार जो अपनी आत्मा को, जिस परमात्मा में से राग द्वेष, मोह, निवृत हो गये हैं, जो सर्वदर्शी हैं और जिसे देवता भी नमस्कार करते हैं ऐसे धर्मदेश- धर्मोपदेश को करने वाले अर्हत् देव के साथ एकीभाव को प्राप्त हुआ अनुभव कर सके वे पिण्डस्थ ध्येय सिद्ध किये हुए समझे जा सकते हैं।
इस सामान्य प्रतिक्रिया के सिवाय और भी अनेक मन्त्रो की परम्परा से शक्तियुक्त आत्म-स्वरूप की भावनाओं का विधान योगशास्त्र के अष्टम प्रकाश में कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि ने किया है । इन मन्त्रों में प्रणव (ऊ) माया (हीं) आदि बीजाक्षर शक्ति-तन्त्र के जैसे के तैसे स्वीकार किये गये हैं। केवल मुख्य देवता रूप में 'अरिहन्ताणम्' जैन पंचाक्षरी ली गयी है। इस मन्त्र शक्ति की प्रक्रिया का हेमचन्द्रसूरि ने स्वयं आविष्कार नहीं किया, परन्तु प्राचीन गणधरो द्वारा स्वीकृत मन्त्र सम्प्रदाय की रीति के आधार पर ही इसका वर्णन किया है। यह तथ्य उनके योगशास्त्र के ८ वें प्रकाश के अन्तिम श्लोकों से स्पष्ट मालूम