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दार्शनिक एवं धार्मिक-ग्रन्थ
इन्द्रिय विषयों की ओर से खींच कर उसे नामि आदि विविध स्थानों में से किसी भी स्थान में स्थापित करने की प्रेरणा की गयी है।
७ वें प्रकाश के प्रारम्भ में कहा गया है कि ध्यान के इच्छुक जीव को ध्यान, ध्येय और उसके फल को जान लेना चाहिये। क्योंकि सामग्रो के बिना कभी कार्य सिद्ध नहीं होते है, तदनुसार यहाँ ध्यान के विषय में कहा गया है कि जो संयम की धुरा को धारण करके प्राणों का नाश होने पर भी कभी उसे नहीं छोड़ता है, शीत-उष्ण आदि की बाधा से कभी व्यग्र नही होता है, क्रोधादि कषायों से जिसका हृदय कभी कलुषित नही होता है, जो काम-भोगों से विरक्त होकर शरीर में भी निःस्पृह रहता है, तथा जो सुमेरु के समान निश्चल रहता है, वही धाता प्रशंसनीय है।
ध्येय (ध्यान का विषय) के पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीतइन चार भेदों का निर्देश करके पिण्डस्थ में सम्भव पार्थिवी, आग्नेयी, मारुती, वारुणी और तत्रभूः इन पाँच धारणाओं का पृथक्-पृथक् विवेचन किया गया है। साथ ही, उस पिण्डस्थ ध्येय के आश्रय से जो योगी को अपूर्व शक्ति प्राप्त "होती है, उसका भी दिग्दर्शन कराया गया है।
८ वें प्रकाश में पदस्थ, 6 वें प्रकाश में रूपस्थ और १० वें प्रकाश में रूपातीत ध्यान का वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त १० वें प्रकाश में उस धर्म-ध्यान के आज्ञा विचयादि अन्य चार भेदों का स्वरूप दिखलाते हुए उक्त धर्मध्यान का फल भी सूचित किया गया है ।
११ वें प्रकाश में पृथक्त्ववितक आदि चार प्रकार के शुक्लध्यान का उल्लेख करके केवली 'जिन' के माहात्म्य को प्रकट किया है।
अंतिम १२ वें प्रकाश के प्रारम्भ में 'श्रुतसमुद्र' और गुरु के मुख से जो कुछ मैंने जाना है उसका वर्णन कर चुका हूँ, अब यह निर्मल अनुभव-सिद्ध तत्व को प्रकाशित करता हूँ' ऐसा निर्देश करके विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट, सुलीन, इन चित्त-भेदों के स्वरूप का कथन करते हुए वहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप भी कहा गया है । अन्त में चित्त की स्थिरता पर विशेष बल दिया गया है। तभी समाधि-अवस्था प्राप्त होकर पुरुष सिद्ध बन जाता है। आचार्य हेमचन्द्र के 'योगशास्त्र' की इस दृष्टि से पतञ्जलि के योगसूत्र से तुलना उचित प्रतीत होती है।
१-भावना १२-अनिल, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशौच, आस्त्रव,