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आचार्य हेमचन्द्र
पड़ती है कि प्रत्येक को पूर्ण प्रमाण मान लिया जाता है। सामान्य और विशेष की प्रत्येक प्रतीति स्व विषय में यथार्थ होने पर भी पूर्ण प्रमाण नहीं वह प्रमाण का अंश अवश्य है । इसे वृक्ष और वन के दृष्टान्त से भी स्पष्ट किया जा सकता है । अनेक वृक्षों को सामान्य रूप में वन रूप में ग्रहण करते हैं तब विशेषों का अभाव नहीं हो जाता, पर सब विशेष लीन हो जाते हैं यही एक प्रकार का अद्वैत हुआ। जब एक-एक वृक्ष को विशेष रूप से देखते हैं तब सामान्य अन्त
र्लीन हो जाता है। दोनों अनुभव सत्य हैं ।। अपने-अपने विषयों में दोनों की सत्यता होते हुए भी किसी एक को पूर्ण सत्य नहीं कह सकते । पूर्ण सत्य दोनों अनुभवों का समुचित समन्वय ही है। इसी में दोनों अनुभव समा सकते हैं । यही स्थिति विश्व के सम्बन्ध में सद्अद्वैत, अथवा सद द्वैत दृष्टि की भी है । जो तत्व अखण्ड प्रवाह की अपेक्षा से नित्य कहा जा सकता है वही तत्व खण्डखण्ड क्षण परिमित परिवर्तनों व पर्यायों की तुलना से क्षणिक भी कहा जा सकता है। वस्तु का कालिक पूर्ण स्वरूप अनादि अनन्तता और सादि सान्तता दोनो अंशों से बनता है । दोनों दृष्टियां प्रमाण तभी बनती हैं जब वे समन्वित हों । दूध दूध रूप से भी प्रतीत होता है और अदधि या दधि-भिन्न रूप से भी। ऐसी दशा में वह भाव, अभाव, उभय रूप सिद्ध होता है। इसी तरह धर्म-धर्मी, गुण-गुणी, कार्य-कारण, आधार-आधेय, आदि द्वंद्वों के अभेद और भेद के विरोध का परिहार भी अनेकान्त दृष्टि कर देती है । एक ही विषय में प्रतिपाद्य भेद से हेतुवाद
और आगमवाद दोनों को अवकाश है। जीवन में देव और पौरुष दोनों वाद समन्वित किये जा सकते हैं। कारण में कार्य सत् भी है, और असत् भी ! कड़ा बनने के पूर्व सुवर्ण में क्षमता के कारण कार्य सत् किन्तु उत्पादक सामग्री के अभाव में उत्पन्न न होने के कारण असत् भी है। बौद्धों का परमाणुपुञ्जवाद एवं नैयायिकों का अपूर्वावयवी वाद दोनों का समन्वय आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा' में अनेकान्तवाद के अन्तर्गत कर दिया है। इस प्रकार का सामञ्जस्य या समन्वय करते समय नयवाद और भङ्गवाद आप ही आप फलित हो जाते
सम्भावित सभी अपेक्षाओं से दृण्टिकोणों से चाहे वे विरुद्ध ही क्यों न दिखायी देते हो किन्तु वास्तविक चिन्तन व दर्शनों का सार-समुच्चय ही उस विषय का पूर्ण अनेकान्त दर्शन है। प्रत्येक अपेक्षा सम्भवी दर्शन उस पूर्ण दर्शन का एक अंग है जो परस्पर विरुद्ध होकर भी पूर्ण दर्शन में समन्वय पाने के कारण वस्तुत: अविरुद्ध ही है । (१) अभेद भूमिका पर “सत्" शब्द के एक