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आचार्य हेमचन्द्र
अवकाश है। इसी व्यवहार-सिद्ध बुद्धि में से जीव-भेदवाद तथा देह-प्रमाणवाद स्थापित हुए जो सम्मिलित रूप से एक मात्र जैन-परम्परा में ही हैं ।
जैन-परम्परा, दृश्य-विश्व के अतिरिक्त, जड़ और चेतन जैसे परस्पर अत्यन्त भिन्न, अनन्त सूक्ष तत्वों को मानती है । स्थूल जगत् को सूक्ष्म जड़-तत्वों का ही कार्य या रूपान्तर मानती है । सूक्ष्म जड़-तत्व परमाणु रूप है। ये परमागुरूप सूक्ष्म जड़-तत्व आरम्भवाद के परमाणु की अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्म माने गये हैं । जैन-दर्शन परिणामवाद की तरह परमाणुओं को परिणामी मानकर स्थूल जगत् को उन्हीं का रूपान्तर या परिणाम मानता है । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जैन दर्शन वस्तुतः परिणामवादी है। सांख्य-योग का परिणाम वाद केवल जड़ तक ही परिमित है । भर्तृ प्रपंच आदि का परिणामवाद मात्र चेतनतत्वस्पर्शी है। हेमचन्द्र के अनुसार जैन परिणामवाद जड़, चेतन, स्थूल, सूक्ष्म समग्र वस्तुस्पर्शी है। वह सर्व व्यापक परिणामवाद है । आरम्भ और परिणाम दोनों वादों का जैन-दर्शन में व्यापक रूप में पूरा स्थान तथा समन्वय है । वस्तुमात्र को परिणामी नित्य और समान रूप से वास्तविक सत्य मानने के कारण जैन-दर्शन प्रतीत्य समुत्पादवाद तथा विवर्तवाद का सर्वथा विरोध ही करता है।
____जैन-दर्शन चेतन बहुत्ववादी है, किन्तु उसके चेतन-तत्व अनेक दृष्टि से भिन्न स्वरूप वाले हैं । हेमचन्द्र चेतन को न्याय, साँख्य के समान न तो सर्वव्यापक द्रव्य मानते हैं, न विशिष्टाद्वैत की तरह अणुमात्र ही मानते हैं। न बौद्धदर्शन की तरह ज्ञान की निद्रव्य धारा मात्र ! जनों का चेतन-तत्व, समग्र चेतनतत्व मध्यम परिमाणवाले सङ्कोच-विस्तारशील होने के कारण इस विषय में जड़द्रव्यों से अत्यन्त विलक्षण नहीं ।
'प्रमाण मीमांसा' के अनुसार जैन-दर्शन जीवात्मा और परमात्मा के बीच भेद नहीं मानता । सब जीवत्माओं में परमात्म-शक्ति एक-सी है और वह साधन पाकर व्यक्त होती भी है। जैन-दर्शन चेतन बहुत्ववादी होने के कारण तात्विक रूप से बहुपरमात्म वादी है। प्रकृति से अनेकान्त-वादी होते हुए भी जैन-दर्शन का स्वरूप एकान्ततः वास्तववादी ही है । आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार इन्द्रियजन्य, मतिज्ञान और पारमार्थिक केवल ज्ञान में सत्य की मात्रा में अन्तर है, योग्यता अथवा गुण में नहीं । आचार्य अनेक सूक्ष्मतम भावों की अनिर्वचनीयता को मानते हुए भी निर्वचनीय भावों को भी यथार्थ मानते हैं। जीवात्मा और परमात्मा में अभेद की कल्पना हिन्दू-दर्शन (वैदिक) का ही प्रभाव प्रतीत होता है।
'प्रमाण मीमांसा' में जीव-सर्वज्ञवाद सिद्ध किया गया है जो उसकी