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________________ १४५ दार्शनिक एवं धार्मिक-ग्रन्थ कार्य भी मान्य है । धर्मा-धर्म के विषय में केवल आगन नहीं, मन, आत्मा दोनों का प्रमाण-सामर्थ्य इष्ट हैं। जैन तार्किकों के अनुसार 'प्रमाण-मीमांसा' में भी हेतु का एकमात्र अन्यथा-नुपपत्ति रूप निश्चित किया गया जो उसका निर्दोष लक्षण भी हो सके और सब मतों के समन्वय के साथ जो सर्वमान्य भी हो। हेतु के ऐसे एकमात्र तात्विक रूप के निश्चित करने का तथा उसके द्वारा ३,४,५,६, पूर्व प्रसिद्ध हेतु रूपों के यथा सम्भव स्वीकार करने का श्रेय जैन तार्किकों के साथ आचार्य हेमचन्द्र की ही है । परार्थानुमान के अवयवों की संख्या का निर्णय श्रोता की योग्यता के आधार पर ही किया गया है। अवयव प्रयोग की यह व्यवस्था वस्तुतः सर्व सङ्ग्राहिणी है । अन्य परम्पराओं में शायद ही यह देखी जाती है । आचार्य हेमचन्द के समय सम्भवतः तत्व-चिन्तन में जल्प, वितण्डा, कथा का चलाना प्रतिष्ठा समझा जाने लगा था, जो छल जाति आदि के असत्य दांवपेचों पर ही निर्भर था। हेमचन्द्र ने अपने तर्क-शास्त्र में कथा का एक वादात्मक रुप ही स्थिर किया, जिसमें छल आदि किसी भी कपट-व्यवहार का प्रयोग वयं है। "तत्वसंरक्षार्थ प्रश्निकादि समक्षं साधन दूषण वदनं वाद:" (२।१।३०), कथा वही जो एकमात्र तत्व-जिज्ञासा की दृष्टि से चलायी जाती है । इस प्रकार एक मात्र वाद कथा को ही प्रतिष्ठित बनाने का मार्ग जैन ताकिकों ने प्रशस्त किया है । वाद के साथ ही हेमचन्द्राचार्य ने अपनी 'प्रमाण मीमांसा' में जयपराजय व्यवस्था का नया निर्माण किया है । यह नया निर्माण सत्य और अहिंसा दोनों तत्वों पर प्रतिष्ठित हुआ है। यह जय-पराजय की पूर्व व्यवस्था में नहीं था। प्रमेय और प्रमता के स्वरूप-जैन दर्शन के अनुसार वस्तुमात्र परिणामी नित्य है । जब अनुभव न केवल नित्यता का है और न केवल अनित्यता का, तब किसी एक अंश को मानकर दूसरे अंश का बलात् मेल बैठाने की अपेक्षा दोनो अंशो को तुल्य रूप में-तुल्य सत्यरूप में स्वीकार करना ही न्याय संगत है । द्रव्य-पर्याय की व्यापक दृष्टि का यह विकास जैन-परम्परा की ही देन है। प्रमाण मीमांसा ने इसी को स्वीकार किया है । आचार्य हेमचन्द्र ने आत्मा का स्वरुप ऐसा माना जिसमें एकसी परमात्म-शक्ति भी रहे और जिसमें दोष,वासना,आदि के निवारण द्वारा जीवन-शुद्धि का वास्तविक उत्तरदायित्व भी रहे। इस प्रकार हेमचन्द्र के आत्मविषयक चिन्तन में वास्तविक परमात्म-शक्ति या ईश्वर-भाव का तुल्यरूप से स्थान है । दोषों के निवाणार्थ तथा सहजशुद्धि के आविर्भावार्थ प्रयत्न का पूरा
SR No.090003
Book TitleAcharya Hemchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV B Musalgaonkar
PublisherMadhyapradesh Hindi Granth Academy
Publication Year1971
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size16 MB
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