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________________ दार्शनिक एवं धार्मिक-ग्रन्थ १४१ म्परा का जन्मदाता जैन-धर्म है। सत्यतः दो चिन्तन धारायें बहती हैं। पहली परम्परा-मूलक ज्ञान के संरक्षित स्वरूप के अनुगमन पर जोर देती है । वह ब्राह्मण-वादी परम्परा है । दूसरी चिन्तनधारा प्रगति-शील है, ज्ञान को विकासशील मानती है, इसमें यज्ञ के स्थान पर आचरण को महत्व है, देवयजन के ऊपर मनुष्यत्व को महत्व है, निः श्रेयस के लिये मानवीय पुरुषार्थ का महत्व है, यह श्रामण्य परम्परा कहलाती है । जैन-धर्म का त्रिरत्न-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र हिन्दू-धर्म के भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोग का ही रूपान्तर है । इस प्रकार जैन-धर्न मूलतः हिन्दू-धर्म, विशेषत: वैष्णव सम्प्रदाय के, अधिक पास है । दार्शनिक दृष्टिकोण से भी ब्राह्मणों के साँख्य और योग-दर्शनों के निरीश्वरवाद से जैन-धर्म की पर्याप्त समानता है। सृष्टि और ब्रह्म की पृथक् सत्ता का जितना समर्थक कपिल का साँख्य है, उतना ही जैन-दर्शन भी। वेदान्त का मुमुक्षु या जीवन्मुक्त ही जैन-दर्शन का सिद्धजीव एवं अर्हत् है। दोनों दर्शन आत्मा की सत्ता की स्वीकार करते हैं, और ब्रह्म-साक्षात्कार के लिए आत्मा के विकास पर जोर देते हैं। आत्मा और मोक्ष के स्वरूप सम्बन्ध दृष्टि में रखकर विचार किया जाय तो जैन-दर्शन उतना ही आस्तिक ठहरता है जितना कि ब्राह्मण दर्शन । जैन-दर्शन आत्मा का चरमोद्देश्य साधना एवं तपश्चर्या को बताता है, वेदान्त में भी जीवन्मुक्त के लिए ब्रह्म तक पहुँचना अनिवार्य बताया गया है। जैन-परम्परा अत्यन्त विशाल एवं विस्तृत है। जैन-मत का अविर्भाव वैदिक मत के बाद में हुआ। दिगम्बर श्वेताम्बरों का आविर्भाव ३०० ई० पू० में हो चुका था। भद्र, साहूँ आदि दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक एवं स्थूलभद्र आदि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं । स्थूलभद्र का परलोकवास २५२ ई० पू० में हो चुका था। मध्ययुगीन न्याय-शास्त्र के इतिहास में जैनों का एक विशेष स्थान है । अकलङक का 'न्याय वार्तिक' स्वामी विद्यानन्द का 'श्लोक वातिक', समन्तभद्र की 'आप्त मीमांसा', हरिभद्रसूरि के 'षड्दर्शन समुच्चय' मल्लिसेन की 'स्याद्वाद मंजरी' इत्यादि ग्रन्थों में नैयायिक दृष्टि से जैन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। जैन-धर्म की सबसे बड़ी देन 'स्यादवाद वाद' है । उसमें सविकल्प मानवीय ज्ञान की अल्पना की अनुभूति कूट-कूट कर भरी है । वस्तुतः वीतरागता, सम्पूर्ण वीतरागता जैन-धर्म का लक्ष्य है। ___ जैन-धर्म की अनेक शाखायें और उप-शाखायें हैं । जैन-धर्म की परम्परा भारत में आज भी जीवित है। इसका एक मात्र कारण यह है कि भारतीय धर्म एवं दर्शन में जैन-धर्म का एक विशिष्ट स्थान है। समन्वयवाद, जिसे अनेकान्त
SR No.090003
Book TitleAcharya Hemchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV B Musalgaonkar
PublisherMadhyapradesh Hindi Granth Academy
Publication Year1971
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size16 MB
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