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________________ १४२ . .. आचार्य हेमचन्द्र वाद से पुकारा जाता है-का साक्षात् दर्शन प्रदान कर जैन-दर्शन ने भारतीय दर्शन में अपना अन्यतम स्थान बना लिया है। श्रामण्य विचार-परम्परा का जन्मदाता होने के कारण और श्रमण संस्कृति का प्रवर्तक होने के कारण आज जैन-धर्म श्रमण प्रधान-जिसमें आचरण को प्रमुखता दी गयी है-बन गया है । हेमचन्द्र के दार्शनिक ग्रन्थ - प्रमाण मीमांसा __ आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी सम्पूर्ण साहित्य सर्जना एक विशेष हेतु की पूर्ति अर्थात् जैन-धर्म के प्रचार हेतु की है । अत: उनके प्रत्येक ग्रन्थ में-फिर वह काव्य हो या स्तुति हो या पुराण हो, जैन धर्म एवं दर्शन के उच्च तत्व रत्न अंतर्निहित हैं। उनकी 'वीतराग-स्तुति' अथवा 'द्वात्रिंशिका' काव्य, सभी में दार्शनिक तत्व गुथे हैं। फिर भी विशुद्ध दार्शनिक कोटि में गणनीय उनका एक मात्र अपूर्ण ग्रन्थ है-और वह है उनका 'प्रमाण मीमांसा' नामक ग्रन्थ । आचार्य हेमचन्द्र के दर्शन ग्रन्थ-'प्रमाण मीमांसा' में यद्यपि उनकी मूल स्थापनाएँ विशिष्ट नहीं है फिर भी जैन प्रमाण-शास्त्र को सुदृढ़ करने में, अकाट्य तर्कों पर सुप्रतिष्ठित करने में प्रमाण मीमांसा'का विशिष्ट स्थान है । उनके द्वारा रचित 'प्रमाणमीमांसा' प्रमाण प्रमेय की साङगोपाङग जानकारी प्रदान करने में सक्षम है। अनेकान्तवाद, प्रमाण, पारमार्थिक प्रत्यक्ष की तात्विकता इन्द्रिय-ज्ञान का व्यापार-क्रम, परोक्ष के प्रकार, अनुमानावयवों की प्रायोगिक व्यवस्था, निग्रह-स्थान, जय-पराजय व्यवस्था, सर्वज्ञत्व का समर्थन आदि मूल विषयों पर इस लघु ग्रन्थ में विचार किया गया है। कलि-काल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रसूरि की अन्तिम कृति 'प्रमाण मीमांसा' का प्रज्ञाचक्षु पं० श्री सुखलाल जी द्वारा सम्पादन किया गया तथा सिंधी जैन ग्रन्थमाला के द्वारा ई० स० १९३६ में प्रकाशन हुआ । 'प्रमाण मीमांसा' सूत्रशैली का ग्रन्थ है । यह अक्षपाद गौतम के सूत्रों की तरह पांच अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय कणाद या अक्षपाद के अध्याय के समान दो आन्हिकों में परिसमाप्त है । इसमें गौतम के प्रसिद्ध न्यायसूत्रों के अध्याय आन्हिक का ही विभाग रखा गया है, जो हेमचन्द्र के पूर्व श्री अकलंक ने जैन वाङ्मय में शुरू किया था। दुर्भाग्य की बात है कि यह ग्रन्थ पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है । इस समय तक सूत्र १०० ही उपलब्ध हैं तथा उतने ही सूत्रों की वृत्ति भी है। अंतिम उपलब्ध २:१:३५ की वृत्ति पूर्ण होने के बाद एक नये सूत्र का उत्थान उन्होंने शुरू किया और उस अधूरे उत्थान में ही खण्डित लभ्यग्रन पूर्ण हो जाता है। उपलब्ध ग्रन्थ दो अध्याय तीन आन्हिक मात्र है जो स्वोपज्ञवृत्ति
SR No.090003
Book TitleAcharya Hemchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV B Musalgaonkar
PublisherMadhyapradesh Hindi Granth Academy
Publication Year1971
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size16 MB
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