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अध्याय:६
दार्शनिक एवं धार्मिक ग्रन्थ
अ. भारतीय दर्शन में जैन-दर्शन का स्थान- ईसा की पाँचवी-छठी शताब्दी पूर्व वैदिक कर्म-काण्ड के विरोध में एक महान् क्रान्ति का सूत्रपात हुआ, जिसके नेता थे महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध । धर्म के क्षेत्र में यह वैमनस्य साहित्य के क्षेत्र में अत्यन्त शुभ सिद्ध हुआ। भारतीय षड् दर्शन की अभ्युन्नति में भी इस क्रान्ति का हाथ रहा है । इस दृष्टि से भारतीय इतिहास में एवं भारतीय दर्शन में जैन-धर्म एवं दर्शन का अपना विशिष्ट स्थान है । उस समय पारस्परिक स्पर्धा के कारण साहित्य के अतिरिक्त सामाजिक जीवन में भी अद्भुत, उन्नति हुई। भारत के धार्मिक इतिहास में जैन-धर्म का प्रमुख स्थान है। भारतीय साहित्य को प्रेरणा, प्रोत्साहन और प्रगति प्रदान करने में जैन-धर्मावलम्बी आचार्यों का प्रमुख योग रहा है । अपने आरम्भिक काल में जैन-धर्म को विरोध का सामना करना पड़ा किन्तु उत्तरोत्तर उसमें समन्वय एवं सामञ्जस्य की भावना का विकास हुआ और आज भारत का सारा जन-मानस जैन-धर्म को परमादर की दृष्टि से देखता है।
भारत के धार्मिक इतिहास में प्रगतिशील धर्मों में जैन-धर्म की गणना होती है । अतः इस देश की संस्कृति के निर्माण में जैन-दर्शन का महत्वपूर्ण स्थान है। सामान्यतः जन-धर्म और हिन्दू-धर्म में कोई विशेष अन्तर नहीं है । जैन-धर्म केवल वैदिक कर्म-काण्ड के प्रतिबन्धों एवं उसके हिंसा सम्बन्धी विधानों को स्वीकार नहीं करता है । वेदों में वर्णित अहिंसा और तप को ही जैनों ने अपनाया है । साधना और वैराग्य की भावना उन्होंने वेदान्त से ग्रहण की। श्रमण पर