________________
हेमचन्द्र के कोश-ग्रन्थ
१३६
निघण्टु शेष : १. वृक्षकाण्ड श्लोक १८६०-२०७०,
२. गुल्म , , २०७१-२१७५, ३. लता , , २१७६-२२२०, ४. शाक ,, , २२२१-२२५२, ५. तृण , , २२५३-२२७०,
६. धान्य ,, , २२७१-२२८५, इस कोश पर अभी तक कोई वत्ति प्राप्त नहीं होती है। इस कोश से हेमचन्द्र का शब्द-शास्त्र का कार्य सम्पूर्ण होता है। पञ्चाङ्ग सहित सिद्ध हेम शब्दानुशासन (उनके वृत्तियों सहित) तथा वृत्ति सहित तीनों कोश एवं 'निघण्टु शेष' यह सब मिलाकर हेमचन्द्र का शब्दानुशासन पूर्ण होता है। इस प्रकार हेमचन्द्र ने गुजरात के ज्ञान-पिपासु अध्ययनार्थी के लिए-और इस माध्यम से भारत के ज्ञानेच्छु पाठकों के लिये, शब्द-शास्त्र के अध्ययनार्थ सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना की । विशेष ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक पाठकों के लिए उन्होंने विस्तृत जानकारी से युक्त वृत्तियाँ लिखीं। अध्ययन के लिए हेमचन्द्र के ग्रन्थों का महत्व सदैव अक्षुण्ण रहेगा। इस प्रकार चालुक्य नरेश सिद्धराज जयसिंह की इच्छा उसके वैभव और उच्च स्तर के अनुसार कार्यरूप में परिणत हुई और साहित्य की प्रत्येक शाखा में सिद्धराज जयसिंह के आश्रय में गुजरात ने सर्वोत्कृष्टता प्राप्त की। हम कह सकते हैं कि सिद्धराज जयसिंह ने न केवल आचार्य हेमचन्द्र के रूप में एक जीवन्त विश्वविद्यालय खड़ा किया अपितु अध्ययन के ज्ञानपूर्ण . ग्रन्थों का समूह भी प्रस्तुत किया। एक गुजराती कवि ने 'हेम' शब्द पर कोटि लिखते हुए ठीक ही कहा है।
'हेम प्रदीप प्रगटावी सरस्वतीनो सार्थकय की धुं
निज नामनु सिद्धराजे' अर्थात् सिद्धराज ने सरस्वती का हेम प्रदीप जलाकर (सुवर्ण दीपक अथवा हेमचन्द्र) अपना 'सिद्ध'नाम सार्थक कर दिया।
१- रानको देवी काव्य-स० रामनारायण पाठक ।