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हेमचन्द्र के कोश-ग्रन्थ
हेमचन्द्र के 'अभिधानचिन्तामणि कोश' के स्वोपज्ञ वृत्ति में अनेक प्राचीन आचार्यों के प्रमाण आये हैं । अनेक शब्दों की ऐसी व्युत्पत्तियाँ भी उपस्थित की गयी हैं जिनसे उन शब्दों की आत्म कथा लिखी जा सकती है । शब्दों में परिवर्तन किस प्रकार होता रहा है; अर्थ विकास की दिशा कौनसी रही है; यह भी वृत्ति से स्पष्ट होता है । उदाहरणार्थ - भाष्यते भाषा, 'वण्यते वाणी' श्रूयते श्रुतिः, विगतो धवो भर्ता अस्या: विधवा' समुखं लपनं संलापः सम्मुखं कथनं सङ्कथा, पडते जानाति इति पण्डितः पण्डा बुद्धिः सञ्जाता अस्येति वा, इत्यादि । इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि शब्दों की व्युत्पत्तियाँ कितनी सार्थक हैं । अत: स्वोपज्ञवृत्ति भाषा के अध्ययन के लिए बहुत आवश्यक है । शब्दों की निरुक्ति के साथ उनकी साधनिका भी अपना विशेष महत्व रखती है । अभिधानचिन्तामणि और भाषा विज्ञान - भाषा विज्ञान की दृष्टि से हेमचन्द्र का 'अभिधानचिन्तामणि कोश' बड़ा मूल्यवान है । हेमचन्द्र के शब्दों पर प्राकृत, अपभ्र ंश एवं अन्य देशी भाषाओं के शब्दों का पूर्णतः प्रभाव परिलक्षित होता है । अनेक शब्द तो आधुनिक भाषाओं में दिखलायी पड़ते हैं । कुछ शब्द भाषा - विज्ञान के समीकरण, विषमीकरण इत्यादि सिद्धान्तों से प्रभावित हैं । उदाहरणार्थ १. पोलिका ( ३।६२ ) - गुजराती में पोणी, बृजभाषा में पोनी, भोजपुरी में पिउनी, हिन्दी - पिउनी. २. मोद को लड्डुकश्च ( शेष ३६४ ) - हिन्दी - लड्डू, गुजराती - लाडू, मराठी तथा राजस्थानी-लाडू,
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३. चोटी ( ३।३३६ ) - हिन्दी - चोटी, गुजराती - चोणी, राजस्थानी - चोड़ी या चुणिका
४. समौ कन्दुकगेन्दुकौ ( ३।३५३ ) - हिन्दी - गेन्द, ब्रजभाषा - गेन्द, मराठी - गेन्द ५. हेरिको - गूढ़ पुरुष: ( ३1३९७ ) - ब्रजभाषा में - हेरहेरना, गुजराती - हेर ६. तरवारि ( ३।४४६ ) - ब्रजभाषा - तरवार, मराठी - तलवार; गुजराती - तरवार ७. जङगलो निर्जल : ( ४।१६ ) - ब्रजभाषा, हिन्दी तथा मराठी - जंगल ८. चालनी तितऊ ( ४ ८४ ) - ब्रजभाषा तथा गुजराती - चालनी
हिन्दी - चलनी तथा छलनी, राजस्थानी - चालनी.
इस प्रकार भाषा-विज्ञान की दृष्टि से, सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से, शब्द - ज्ञान की दृष्टि से हेमचन्द्र का 'अभिधानचिन्तामणि कोश' सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वाङ्गसुन्दर है । फिर भी अपने कोश की पूर्णता हेतु उन्होंने परिशिष्ट रुप दो और कोश लिखे । तदनन्तर देशी - नाम - माला लिखकर शब्द कोश की समाप्ति की
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