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आचार्य हेमचन्द्र
मणि में उन्होंने हृद्य की परिभाषा दी है । अतः समानधर्मत्व के साथ वह समानधर्मत्व आह्लादजनक भी होना चाहिये । सौन्दर्य के भाव-पक्ष पर हेमचन्द्र विशेष ध्यान देते हैं । यह हेमचन्द्र की ही मौलिकता है। अलङ्कारों की संख्या कम करके अनुरूप अलङ्कारों का तत्सम प्रधान अलङ्कार में समावेश करना आचार्य हेमचन्द्र की ही कला है।
आचार्य हेमचन्द्र का रस-विवेचन भी बड़ा ही मार्मिक एवं गहरा है । भरत नाट्यशास्त्र के एवं अभिनवगुप्त के उद्धरण उद्धृत करने पर भी हेमचन्द्र के विवेचन में मौलिकता है । उन्होंने काव्य के गुण-दोष को रस की कसौटी पर कसकर ही वर्णित किया है। उनका मत है कि रसापकर्षक दोष हैं, रसोत्कर्षक गुण हैं तथा अलङ्कार रसाश्रित होने चाहियें। रसाभाव में अलङकार को काव्य के दोष ही समझना चाहिये। अलङकार केवल बाह्य सौन्दर्य के लिए नहीं, उन से आन्तरिक सुन्दरता अर्थात् रसनिष्पत्ति होना आवश्यक है।
__ वे रस-सिद्धान्त के कट्टर अनुयायी थे। रस-सिद्धान्त की अभिव्यक्ति में उनकी मौलिकता प्रकट होती है। हेमचन्द्र के मत से व्यभिचारि भाव स्थायी भावों को जो सहायता पहुंचाते हैं. वह सहायता स्वयं का धर्म स्थिर रखकर नहीं बल्कि स्वयं का धर्म स्थायी भावों में अर्पण करके पहुंचाते हैं। व्यभिचारि भाव दुर्बल दासों के समान परावलम्बी होते हैं, अस्थिर होते हैं। स्वामी की लहर के अनुसार जिस प्रकार सेवकों को बदलना पड़ता है उसी प्रकार व्यभिचारि भाव स्थायी भावों के अनुसार बदलते हैं । स्वयं का अस्तित्व मिटाकर स्थायी भावों में अर्पित हो जाते हैं, उनका पर्यवसान उन्हीं में हो जाता है। हेमचन्द्र का उक्त कथन बहुत मार्मिक एवं मौलिक है !
काव्यानुशासन के मतानुसार काव्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और ग्राम्यापभ्रश में भी लिखा जा सकता है । काव्यानुशासन की एक अन्य विशेषता है - उसमें वर्णित कथा के प्रकार तथा गेय के प्रकार ।
'काव्यानुशासन' के 'अलङ्कारचूड़ामणि' तथा 'विवेक' में जो उदाहरण एवं जानकारी हेमचन्द्र ने दी, वह संस्कृत-साहित्य में एवं काव्य-शास्त्र के इतिहास के लिए अत्यंत उपयुक्त है । हेमचन्द्र ने जो ग्रन्थ एवं ग्रन्थकारों के नाम उद्धृत किये हैं उनसे संस्कृत-साहित्य के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ सकता है।
__ डा० एस० के० डे० ने 'काव्यानुशासन' को 'काव्य प्रकाश' से निकष्ट बताया है । डा. रसिकलाल पारीख ने 'काव्यानुशासन' की प्रस्तावना में डा० १ -History of Sanskrit Poetics, Vol. I, Page-203