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हेमचन्द्र के अलङ्कार-ग्रन्थ
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की है। उसमें उन्होंने आचार्य हेमचन्द्र के मत मम्मट, मुकुलभट्ट, ध्वनिकार आनन्दवर्धन के मत से किस प्रकार भिन्न है, यह दिखाया है, तथा 'काव्यानुशासन' को नितान्त मौलिक कृति सिद्ध किया है । सचमुच यदि कोई ग्रन्थकार अपने मत के समर्थन में अन्य ग्रन्थों से, ग्रन्थकारों के उद्धरण प्रस्तुत करता है तो उसमें उस ग्रन्थकार की मौलिकता नष्ट नहीं होती है, बल्कि इससे तो उसके मत की, सिद्धान्त की एवं मौलिकता की पुष्टि ही होती है।
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'काव्यानुशासन' में मम्मट, राजशेखर, भरत अभिनवगुप्त, आनन्दवर्धन, घनञ्जय, आदि आलङ्कारिकों के उद्धरण निःसन्देह प्रस्तुत किये हैं, किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि आचार्य हेमचन्द्र शत-प्रतिशत उक्त आलङकारिकों का मत मानते हैं और उनका 'काव्यानुशासन' केवल एक सङग्रह मात्र है । हेमचन्द्र का अपना स्वयं का स्वतन्त्र मत है, स्वतन्त्र शैली है, स्वतन्त्र दृष्टिकोण है। अपने दृष्टिकोण को समझाने के लिए वे अन्य ग्रन्थों से उद्धरण प्रस्तुत करते हैं तो उसमें उनके मत की प्रतिष्ठा बढ़ती ही है, घटती नही। मौलिकता तो कभी नष्ट नहीं होती। मौलिकता के विषय में हेमचन्द्र का स्वयं का मत पहले ही उद्धृत किया जा चुका है। फिर भी मौलिकता की दृष्टि से हम एक बार फिर विहङ गमावलोकन करते हैं । उदाहरणार्थ उनका काव्य का प्रयोजन ही देखिये
"काव्यमानन्दाय यशसे कान्तातुल्यतयोपदेशाय च" इसमें “कला के लिए कला" सिद्धान्त की ध्वनि स्पष्ट सुनायी देती है। मम्मट अथवा दूसरे आचार्यों द्वारा बताये गये काव्य के प्रयोजन हेमचन्द्र को मान्य नहीं हैं। "काव्यमानन्दाय" कहकर यह सिद्ध किया है कि स्वान्तः सुखाय काव्य-रचना होती है । हेमचन्द्र का यह दृष्टिकोण नितान्त मौलिक है।
इसी प्रकार हेमचन्द्र की उपमा की व्याख्या भी अनुपमेय है। "हृद्य साधर्म्यमुपमा"। प्रायः सभी आलङ्कारिकों ने 'साधर्म्य' पर हीविशेष जोर दिया है । किन्तु 'हृद्य' पर विशेष जोर देकर हेमचन्द्र ने अपनी मौलिकता सिद्ध की है । समान धर्मता हृद्य अर्थात आलादजनक होनी चाहिये । 'साधर्म्य हृद्य अर्थात् आह्लादजनक होगा तो ही वह अलङकार हो सकता है, अन्यथा नहीं। अलङ कार रसोपकारक हो तो ही वे काव्य में उपादेय हैं इसलिये उपमा का 'साधर्म्य हृद्य होना ही चाहिये । "हृद्य सहृदयहृदयाल्हादकारि" अलङ कार-चूड़ा१ –'आचार्य हेमचन्द्र पर व्यक्तिविवेक के कर्ता का ऋण' निबन्ध इण्डियन
कल्चर ग्रन्थ १३ पृष्ठ २१८-२२४,