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हेमचन्द्र के अलङकार-ग्रन्थ
है। सूक्ष्म भेद एवं कम महत्व के अलङ्कारों को उन्होंने तत्सदृश महत्वपूर्ण अलङ्कारों में मिला दिया है, उदाहरणार्थ संङकर के अन्तर्गत संसृष्टि, दीपक के अन्तर्गत तुल्ययोगिता । हैमचन्द्र के परबृत्ति अलङ्कार में मम्मट के पर्याय एवं परिवृत्ति दोनों समा जाते हैं । उपमा के अन्तर्गत अनन्वय और उपमेयापमा दोनों समा जाते है । मम्मट 'पुंस्त्वादपि प्रविचलेत्' को श्लेषमूला प्रस्तुत प्रशंसा के उदाहरण के रूप में बताते हैं, किन्तु हेमचन्द्र इसे ही शब्द-शक्ति मूल-ध्वनि के उदाहरण के रूप में देते हैं।
हेमचन्द्र की उपमा की परिभाषा मम्मट से भिन्न है । उदाहरणार्थ"साधर्म्यमुपमा भेदे"-मम्मट तथा "हृद्य साधर्म्यमुपमा"-हेमचन्द्र । इसमें मम्मट केवल साधर्म्य पर जोर देते हैं। उनमें सौन्दर्याभिरुचि कम प्रतीत होती है । हेमचन्द्र की परिभाषा में सौन्दर्याङ्ग-हृद्य पर विशेष जोर दिया गया है । साधर्म्य आह्लादजनक होगा तब ही वह उपमा अलङ्कार होगा। मम्मट की परिभाषा में ऐसी बात नहीं हैं।
मम्मट का 'काव्यप्रकाश' विस्तृत है, सुव्यवस्थित है, किन्तु सुगम नहीं है। उसके विषय में निम्नांकित उक्ति प्रसिद्ध है-'काव्यप्रकाशस्य कृता गृहे गृहे । टीकास्तथाप्येष तथैव दुर्गम:' ॥ अगणित टीकाएँ होने पर भी 'काव्य प्रकाश' दुर्गम ही रह जाता है । किंबहुना दुर्गम है इसीलिए सुगम करने के लिए अगणित टीकायें लिखी गयीं। 'काव्यानुशासन' में इस दुर्गमता को 'अलङ्कारचूडामणि' एवं 'विवेक' के द्वारा सुगमता में परिणत किया गया है।
'काव्यप्रकाश' में केवल श्रव्य काव्य के तन्त्र के विषय में- साङ्गोपाङ्ग चर्चा है; किन्तु दृश्य काव्य के विषय में कुछ भी नहीं कहा गया है । 'काव्यानुशासन' में नाटक के विषय में भी साङगोपाङ ग चर्चा होने के कारण निःसन्देह 'काव्यानुशासन' का महत्व 'काव्यप्रकाश' से नितान्त अधिक है। इस सन्दर्भ में 'काव्यानुशासन' की तुलना पण्डित विश्वनाथ के 'साहित्य दर्पण' मात्र से की जा सकती है। आचार्य हेमचन्द्र और विश्वनाथ दोनों के अनुसार महाकाव्य की कथा के विकास-क्रम में पाँच नाटकीय सन्धियों का समन्वय होना चाहिये । दण्डी हेमचन्द्र, तथा विश्वनाथ इन तीनों के अनुसार प्रत्येक सर्ग में एक छन्द आदि से प्राय: अन्त तक रहता है। दण्डी द्वारा वर्णनीय विषयों में दुष्टों के अतिरिक्त आचार्य हेमचन्द्र और विश्वनाथ ने महाकाव्य के वर्णनीय विषयों में दुष्टों की निन्दा और सज्जनों की प्रशंसा का भी समावेश किया है। काव्य-लक्षणा के विषय में जरूर मत-भेद प्रकट होता है । विश्वनाथ काव्य का लक्ष्य धर्मार्थ-काम