________________
..
आचार्य हेमचन्द्र
है । हैम धातुपाठ में कुल १६८० धातुएँ उपलब्ध हैं । उनके कुछ धातुओं के अर्थ बहुत ही सुन्दर हैं । इन अर्थों से भाषा सम्बन्धी अनेक प्रवृत्तियाँ ज्ञात होती हैं । उदाहरणार्थ डुवपी-बीज सन्तान अर्थ में, फक्व-निगीर्ण अर्थ में । अत: आचार्य हेमचन्द्र का घातुपाठ ज्ञानवर्धक होने के साथ मनोरंजक भी है।
३. गणपाठ- विजयनीतिसूरि ने 'सिद्ध हेमवृहत् प्रक्रिया' में हेमचन्द्र के सभी गणपाठ दिये हैं। हेमचन्द्राचार्य ने गणनिर्देश में प्रायः शकिटायन का अनुसरण किया है। फिर भी कतिपय स्थानों में स्वोपज्ञ अंश भी है । कतिपय नये गगों का निर्धारण भी किया है । उदाहरणार्थ पाणिनि के 'सायं चिरं' ४।३।२३ के लिए 'सायाल्हादि' ३।११५३ गण की कल्पना की। कहीं नाम परि. वर्तन पाया जाता है। उदाहरणार्थ :-पाणिनि,-चतुर्थी तदर्थार्थ २ | १ | ३६,
पाल्यकीति अर्थादि " २/१ | ३६,
हेमचन्द्र हितादि , ३।१ । ७१, गणपाठ के तत्तत् गणों में पूर्वाचार्य स्वीकृत प्रायः सभी पाठान्तरों का हेमचन्द्र ने अपने गणपाठ में सङ्ग्रह कर दिया है । प्रायः सभी ग्रन्थों में उनकी यह सङग्रहात्मक प्रवृत्ति देखी जाती है । गण पाठ पर कोई स्वतन्त्र व्याख्या उपलब्ध नहीं होती है । तथापि कतिपय गणों के शब्दों की व्याख्या उनके बृहन्न्यास में उपलब्ध होती है ।
४. उणादिपाठ- आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण से सम्बद्ध 'उणादि' पाठ का प्रवचन किया है तथा उस पर स्वयं विवृत्ति भी लिखी है। यह उणादि पाठ सबसे अधिक विस्तृत हैं । इसमें १००६ सूत्र हैं, व्याख्या भी पर्याप्त विस्तृत है, इसमें २८,००० श्लंक हैं । 'हेमोणादि' वृत्ति हेमचन्द्र की बृहद्वृत्ति का संक्षेप रूप है। एक अवचूरी टीका भी विक्रम विजय मुनि ने सम्पादित की है। हेमचन्द्र ने स्वोपज्ञ उणादि वृत्ति में दशपादी के अनेक पाठों का नाम-निर्देश के बिना उल्लेख किया है । इस प्रकार उन्होंने उणादि प्रत्ययों का अनुशासन किया है। उणादि द्वारा निष्पन्न कितने ही ऐसे शब्द हैं जिनसे हिन्दी, गुजराती और मराठी भाषा की अनेक प्रवृत्तियोंपर प्रकाश पड़ता है। जैसे कर्कर-कांकर-कंकङ, गर्गरीगागर, द्रवरो-गुण- डोरा इत्यादि ।
५. लिङ्गानुशासन- हेमचन्द्र का लिङगानुशासन सभी लिङगानुशासनों की अपेक्षा विस्तृत है। इसमें विविध छन्दोयुक्त १३८ श्लोक हैं । उन्होंने एक बृहत स्वोपज्ञ विवरण भी लिखा है, जिसमें ३६८४ श्लोक हैं। इसके सिवाय कनकप्रभ (वि० १३ वीं शती), जयानन्दसूरि, केरूरविजय, वल्लभगणी (१६६१)