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द्वितीय अधिकार करती है । आत्मा निर्लेपक है, अकर्ता है इत्यादि कथन करना प्रधानवाद नामक मिथ्यात्व है।
द्रव्यैकान्तवादो ( नित्यवादी ) कपिल दर्शन है, सांख्यमत है, जो द्रव्याथिक नय को हो स्वीकार कर पदार्थों को नित्य ही कहता है इत्यादि अनेक प्रकार के मिथ्यात्व हैं। वयणवहा जावदिया णयवादा होंति चेव तावदिया । णयवादा जावदिया तावदिया होंति परसमया ॥३४॥
वचनपथा यावन्तो नयवादा भवन्ति चैव तावन्तः। नयवादा यावन्तो तावन्तो भवति परसमयाः॥
इदि सुतं गदं-इति सूत्रं गतं । बहुत कहने से क्या ! सारांश इतना है कि जितने वचन बोलने के मार्ग हैं, उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही पर समय हैं । अर्थात् परस्पर निरपेक्ष वचन मिथ्यात्व हैं ।। ३४ ।।
विशेषार्थ इन सर्व मिथ्यावादों का वर्णन करके खण्डन जिसमें पाया जाता है वह सूत्र अथवा इस सत्र में चार अधिकार हैं। प्रथम अधिकार में अबंध भावों का कथन है। दूसरे भेद में श्रुति, स्मृति और पुराणों के अर्थ का निरूपण है वा त्रैराशिक वादियों का वर्णन है और चतुर्थ अधिकार में स्व समय और पर समय का निरूपण है।
इस प्रकार जो मिथ्यादृष्टियों का अनेक प्रकार के कुवादियों का वर्णन करके खण्डन करता है वह सूत्र है।
॥ इति दृष्टिवाद सूत्र का कथन समाप्त हुआ । पढम मिच्छादिद्धि अव्वदिकं आसिदूण पडिज्ज । अणुयोगो अहियारो वुत्तो पढमाणुयोगो सो ॥ ३५॥
प्रथमं मिथ्यादष्टि अव्युत्पन्न आश्रित्य प्रतिपाद्य।
अनुयोगोऽधिकार उक्तः प्रथमानुयोगः सः॥ चउवीसं तित्थयरा वइंणो ? बारह छखंडभरहस्स । णवबलदेवा किण्हा णव पडिसत्तू पुराणाइं ॥ ३६ ॥