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अंगपणतिः- चतुर्विशतिस्तीर्थकरान् जयिनो द्वादश षट्खण्डभरतस्य । नव बलदेवान् कृष्णान् नव प्रतिशत्रून पुराणानि ॥ तेसि वण्णति पिया माई णयराणि चिण्ह पुन्वभवे । पंच सहस्सपयाणि य जत्थ हु सो होदि अहियारो ॥३७॥ तेषां वर्णयन्ति पितन् मातः नगराणि चिह्नानि पूर्वभवान् ।
पंचसहस्रपदानि च यत्र हि स भवति अधिकारः॥ पयाणि-५०००। __ दृष्टिवाद का तीसरा भेद प्रथमानुयोग है। मिथ्यादृष्टि, अव्रतिक और अव्युत्पन्न ( अज्ञानी ) को प्रथम कहते हैं और अधिकार को अनुयोग कहते हैं । मिथ्यादृष्टि, अव्रतिक और अव्युत्पन्न रूप प्रतिपाद्य का आश्रय लेकर जो अनुयोग प्रवृत्त होता है, उसको प्रथमानुयोग कहते हैं । ३५ ।।
इस परिक्रम में वृषभादि चतुर्विंशति तीर्थंकरों के, भरत क्षेत्र के षटखण्ड को जीतने वाले भरत चक्रवर्ती आदि बारह चक्रवर्तियों के, रामचन्द्र आदि नौ बलदेवों के, कृष्ण आदि नव नारायणों के, नारायणों के प्रतिशत्रु जरासन्ध आदि प्रतिनारायणों के जीवन का कथन है। तथा चतुविशति तीर्थंकर, उनके माता का, पिता का, नगर का, चिह्न का और भव का जो अधिकार पाँच हजार पदों के द्वारा वर्णन करता है वह प्रथमानुयोग कहलाता है ।। ३६ ।। ___ अर्थात् इस प्रथमानुयोग में चतुर्विंशति तीर्थंकरों के चरित्र का वर्णन है उनका नाम क्या है, उनका चिह्न क्या है, उनके माता-पिता का नाम, उनके जन्म स्थान का नाम, निर्वाण स्थान, उनके पूर्व भव आदि का कथन किया जाता है। उसी प्रकार चक्रवर्ती आदि सठशलाका पुरुषों का कथन प्रथमानुयोग में किया गया है । इसके पद पाँच हजार हैं ॥ ३७॥ ।। इस प्रकार प्रथमानुयोग का कथन समाप्त हुआ ।
उत्पादपूर्व का वर्णन कोडिपयं उप्पादं पुव्वं जीवादिदव्वणियरस्स । उप्पादव्वयधुव्वादणेयधम्माण पूरणयं ॥३८॥
कोटिपदं उत्पादं पूर्व जीवाविद्रव्यनिकरस्य ।
उत्पादव्ययध्रौव्याद्यनेकधर्माणां पूरणकं ॥ पयाणि १००००००० । तं जहादव्वाणं जाणाणयुवण्णयगोयरकमजोगवज्जसंभाविदुप्पाक्व्वयधुम्बाणि