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अंगपण्णत्ति ... --- लोकेप्रसिद्धिः सार्था पंचाली पंचपांडवस्त्री हि । सकृदुत्थिता न रुद्धचते मिलितैः सुरैः दुर्वारा॥
लोयवादो-लोकवादः। एक ही बार उठी हुई लोक प्रसिद्धि देवों से भी मिलकर दूर नहीं हो सकती। अन्य की बात क्या है-जैसे कि द्रौपदी पंच भर्तारी (पाँच पांडवों की पत्नी है ) है असत्य किंवदन्ती लोक में प्रसिद्ध है, इसको दूर करने के लिए कौन समर्थ है ॥ ३३ ॥
विशेषार्थ जिस समय द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वर-माला डाली थी उस समय द्रौपदी के पापोदय के कारण माला टकर उसके पष्प पाँचों पांडवों पर बिखर गये। लोक में प्रसिद्धि हुई कि द्रौपदी ने पाँच पुरुषों का वरण किया । परन्तु द्रौपदी पतिव्रता शील शिरोमणि नारी थी। पूर्वभवोपार्जित पाप के कारण द्रौपदी को असत्य लांछन लगा। उस लोक प्रसिद्धि को मिटाने के लिये पार्श्वनाथ और महावीर भी समर्थ नहीं हुए। यह लोकवाद नामक मिथ्यात्व है, यह लोक प्रवृत्ति को ही सर्वस्व मानता है।
इस प्रकार और भी मिथ्यात्व हैं जैसे गोशाला प्रवर्तित, आजीविक आदि पाखंडियों को त्रैराशिक कहते हैं। क्योंकि वह सारी वस्तुओं को त्रयात्मक मानता है जैसे जीव, अजीव, जीवाजीव । लोक-अलोक लोकाकाश । अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति, नय भी तीन प्रकार का मानता है-जैसे द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक और द्रव्यार्थिक-पर्यायाथिक इत्यादि त्रैराशिक मिथ्यात्व है। __ज्ञानस्वरूप के अन्तः प्रविष्टत्व प्रसिद्ध प्रतिभासमान सारी वस्तु का संवेदन ही पारमार्थिक तत्त्व है। जितनी वस्तु ज्ञान में अवभासित होती है वह ज्ञानरूप है। जैसे संवेदन में आने वाले सूख-दुःख आदि । अतः ज्ञान को छोड़कर अन्य पुद्गलादिक नहीं है। ज्ञानद्वैत ही सब कुछ है, ऐसा मानना विज्ञानाद्वैत मिथ्यात्व है। -न्याय० कु० च०, पृ० १५९ ।
जितना संसार दृष्टिगोचर होता है, वह सर्व शब्दमय है । बाह्य और अभ्यन्तर अर्थ में उत्पद्यमान पदार्थ शब्द से ही अनुविद्ध है ऐसा कहना शब्द ब्रह्मवाद मिथ्यात्व है।
सत्व, रज और तम की साम्य अवस्था को प्रधान कहते हैं। प्रधानवाद सांख्यवाद है, क्योंकि सांख्य पुरुष (आत्मा ) के अर्थापेक्ष प्रकृति परिणाम को ही लोक मानता है अर्थात् आत्म-निरपेक्ष प्रकृति ही सब कुछ