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प्रथम अधिकार
-३३ जिन्होंने संसार का अन्त किया है, या केवलज्ञान और मोक्ष एक साथ प्राप्त किया है उनको अन्तकृतनाथ कहते हैं। उनका वर्णन जिस अङ्ग में किया गया है, अन्तकृतनाथ अङ्ग कहलाता है।
प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में दश-दश श्रेष्ठ मुनि घोर उपसर्ग को सहन कर तथा इन्द्र के द्वारा रचित पूजा को प्राप्त कर संसार को छोड़ते हैं, इससे जाना जाता है कि वे अन्तमुहर्त पर्यन्त तेरहवें गुणस्थान को प्राप्म कर तत्पश्चात् १४वें गुणस्थान में जाकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं । यद्यपि ८, ९, १०, १२, १३ और १४वाँ ये सब गुणस्थान एक अन्तम हर्त में ही होते हैं तथापि अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात भेद हैं अतः इन्द्र के द्वारा पूजा प्राप्त कर संसार छोड़ते हैं। इससे अनुमान लगाया जाता है कि वे १३वें गुणस्थान को प्राप्त कर चौदह में जाते हैं। परन्तु विशेष अन्तर न होने से एक साथ कह दिया जाता है ।। ४९ ॥
जिस अंग में घोर उपसर्ग सहन कर केवलज्ञान उपार्जन कर मोक्ष में जाने वाले केवलियों के माहात्म्य तथा उनका रमणीय श्रेष्ठ आचरण वर्णन किया जाता है-जैसे प्रत्येक तीर्थंकर के समय में दश-दश अन्तकृत केवली होते हैं। वैसे महावीर भगवान् के तीर्थ में दश अन्तकृतकेवली हुए थे। उनके नाम निम्न प्रकार हैं ॥ ५० ॥
अन्तकृतदशांग में अन्तकृत दश केवलियों के नाममायंग रामपुत्तो सोमिल जमलीकणाम किक्कंबी। सुदंसणो वलीको य णमी अलंबद्ध पुत्तलया ॥५१॥
मंतगो रामपुत्रः सोमिलः यमलोकनाम किष्क विलः।
सुदर्शनः बलिकश्च नमिः पालंवष्टः पुत्राः॥ अन्तकृशाङ्गस्य पदानि २३२८००० । श्लोकाः ११८९३३९३९८८५२००० । अक्षराणि ३८०५८८६०७६३२३४००० ।
इति अंतयड दशांगमट्ठमं गदं-इत्यन्तकृद्दशाङ्गमष्टमं गतम् ।
मांतग, रामपुत्र, सोमिल, यमलीक नाम, किष्कविल, सुदर्शन, बलिक, नमि, पालम्ब और अष्टमपुत्र ॥ ५१॥ ___ इसी प्रकार प्रत्येक तीर्थंकर के समय में दश-दश मुनिगण घोरोपसर्ग को सहन कर कर्मों का क्षय कर अन्तकृतकेवली हुए हैं, उनकी दशा