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प्रथम अधिकार
३१ बिना प्रयोजना की मन, वचन और काय को प्रवृत्ति को रोकना अनर्थदण्डत्यागवत है। ___ मानसिक इच्छाओं पर नियन्त्रग करने के लिए भोग ( एक बार भोगने योग्य आहारादि का ) तथा उपभोग ( जिन्हें पुनः-पुनः भोगा जा सके ऐसे वस्त्र आदि उपभोग वस्तुओं की मर्यादा बाँध लेना भोगोपभोगपरिमाणवत है।
शिक्षा प्रधान होने से या नियत काल के लिए होने वाले व्रत को शिक्षाव्रत कहते हैं। सामायिक, प्रोषधोपवास, देशविरति और अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। ___ समय का अर्थ है एकत्व रूप से गमन अर्थात् मन, वचन, काय की क्रियाओं से निवृत्त होकर एक आत्म द्रव्य में लीन होना । तथा चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति और अन्त में समाधिभक्ति, मध्य में दो कायोत्सर्ग, चार आवर्त, तीन शिरोनति तथा दो नमस्कार रूप क्रिया को दिन में एक बार, दो बार या तीन बार करना सामायिक शिक्षाक्त है।
प्रोषध का अर्थ है पर्व या एक बार भोजन करना। यह अष्टमी, चतुर्दशी के दिन किया जाता है। क्योंकि इन दोनों तिथियों को पर्व कहते हैं। पर्व के दिन एकाशन या उपवास करना प्रोषधव्रत है।
प्रतिदिन गृह, ग्राम आदि के जाने की मर्यादा करना देशविरति है।
जिनके आने की प्रतिपदा आदि तिथि नियत नहीं है, उन्हें अतिथि कहते हैं। उन अतिथियों का पुजा-सत्कार, नवधाभक्तिपूर्वक और सात गुण सहित आहार दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है । ___निष्प्रतिकार उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और रोग के उपस्थित हो जाने पर धर्म के लिए शरीर को छोड़ना सल्लेखना कहलाती है।
स्व और पर का अनुग्रह करने के लिए अपने धन का त्याग करना, संसार तारक तीन प्रकार के पात्रों को दान देना और निश्चय से रागद्वेष का त्याग करना दान है।
पंच परमेष्ठी, जिनबिम्ब, जिन मन्दिर, जिनशास्त्र और जिनधर्म रूप नव देवता की अर्चा करना पूजा है।
मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविकाओं के समूह को संघ कहते हैं। उस संघ की सेवा करना, उनकी आपत्ति को दूर करना संघसेवा है।
आठ मूलगुण, बारह अणुव्रत, बारह तप, समता, ग्यारह प्रतिमा, चार