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प्रथम अधिकार
विशेषार्थ जिस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल को अपेक्षा सादृश्य का कथन है उसी प्रकार इस अंग में बहुत प्रकार की पर्यायों की अपेक्षा से होने वाले सादृश्य का भी कथन किया जाता है। जैसे देव और नारकियों में गुणस्थान, आयु, ज्ञान, दर्शन, योग, प्राण, पर्याप्ति, संज्ञा, इन्द्रिय, काय, संयम स्थान समान हैं । अर्थात् देवों के भी आदि के चार गुणस्थान होते हैं और नारकियों के भी चार गुणस्थान हैं । देव और नारकियों की आयु भी जघन्य और उत्कृष्ट समान है । देवों के तीन सुज्ञान, तीन कुज्ञान, चक्षु, अचक्षु, अवधि ये तीन दर्शन ११ ( चार मन, चार वचन, वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र और कार्माण योग चार संज्ञा, पंचेन्द्रिय, त्रसकाय, नौ उपयोग, छह पर्याप्ति और दश प्राण हैं वैसे नारकियों के हैं। मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिथंचों में जघन्य, उत्कृष्ट आयु संज्ञा, प्राण, पर्याप्ति समान हैं । इसी प्रकार चारों गतियों के जीवों के आहार, श्वासोच्छ्वास, लेश्या, आवास संख्या का प्रमाण, उपपाद, च्यवन ( वहाँ से च्युत होना ) उवग्रहण उवधि, वेदना विधान, उपयोग, योग, इन्द्रिय, कषाय, विविध प्रकार की जोव योनि, विष्कंभ, उत्सेद्य परिमाण, विधि विशेष, मन्दारि पर्वत, कुचालक तथा कुलकर, तीर्थंकर, गणधर चक्रवर्ती, अर्ध चक्रवर्ती, हलधर आदि की क्षेत्र की अपेक्षा संख्या, उनका वैभव आदि की सादृशता का वर्णन जिसमें किया जाता है, वह समवायांग है।
इस समवायांग के एक लाख चौसठ हजार पद हैं। इस अंग में ८,३७,८५०,८७९,२६००० ( आठ नील, सैत्तीस खरब, पिच्चासी अरब, सात करोड़, उन्यासी लाख, छब्बीस हजार श्लोक हैं । और २,६८,११,२२, ४९,३६,३२००० (दो शंख, अड़सठ नील, ग्यारह खरब, बाईस अरब, उन्नचास करोड़, छत्तीस लाख, बत्तीस हजार ) अक्षर हैं। ।। इस समवायांग नामक चतुर्थ अंग का प्रकरण समाप्त हुआ ।
विपाकप्रज्ञप्त्यंग का कथन दुगदुगअडतियसुण्णं विवायपण्णत्तिअंगपरिमाणं । णाणाविसेसकहणं ति जिणा जत्थ गणिपण्हा ॥ ३६ ॥ द्विकद्वि कतिकशून्यं विपाकप्रज्ञप्त्यङ्गपरिमाणं ।
नानाविशेषकथनं ब्रुवन्ति जिना यत्र गणिप्रश्नान् ॥ विपाक प्रज्ञप्ति ( व्याख्या प्रज्ञप्ति ) अंग के पदों का प्रमाण दो दो