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अंगपण्णत्त
समओ समएण समो आबलिएणं समा हु आवलिया । काले पढमढवीणारय भोमाण वी (वा) जाणं ॥ ३३ ॥
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समयः समयेन सम आवलिकया समा हि आवलिका । कालेन प्रथमपृथ्वीनारकाणां भोमानां वानानां ॥ सरिसं जहण्णआऊ सत्तमखिदिणारयाण उक्कसं । सब्वद्वाणं आऊ सरिसं उस्सप्पिणीपमुहं ॥ ३४ ॥ सदृशं जघन्यायुः सप्तमक्षितिनारकाणामुत्कृष्टं । सर्वार्थस्थानां आयुः सदृशं उत्सर्पिणीप्रमुखं ॥
काल समवाय की अपेक्षा एक समय एक समय के बराबर है । एक आवली का समय एक आवली के बराबर है । प्रथम नरक के नारकियों की भवनवासी देवों की और व्यन्तर देवों की जघन्य आयु समान ( दश हजार वर्ष प्रमाण ) है । सप्तम नरक के नारकियों और सर्वार्थसिद्धि के देवों की उत्कृष्ट आयु समान ( तेतीस सागर ) प्रमाण है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का काल सदृश ( दस कोटा - कोटी प्रमाण ) है । इस प्रकार काल की अपेक्षा समानता को काल समवाय जानना चाहिए ।। ३३-३४ ॥ भावे केवलणाणं केवलदंसणसमाणयं दिट्ठ ।
एवं जत्थ सरित्थं वेति जिणा सव्वअत्थानं ॥ ३५ ॥
भावेन केवलज्ञानं केवलदर्शनसमानं दिष्टं ।
एवं यत्र सदृशं जानन्ति जिना सर्वार्थान् ॥
समवायांगपदं १६४००० । श्लोक ८३७८५०७७९२६००० | अक्षर २६८११२२४९३६३२००० ।
इति समवायांगं चउत्थं गदं - इति समवायाङ्गं चतुर्थं गतं ।
भाव समवाय की अपेक्षा केवलज्ञान, केवलदर्शन के समान कहा है क्योंकि आत्मा के जितने प्रदेशों में ज्ञान है उतने ही प्रदेशों में दर्शन है । अथवा केवलज्ञान के अविभागी परिच्छेद और केवलदर्शन के अविभागीपरिच्छेद समान है । अथवा ज्ञेय प्रमाण ज्ञान के बराबर दर्शन चेतना शक्ति की उपलब्धि होती है । इस प्रकार जिन पदार्थों का जैसा सादृश्य केवली भगवान् जानते हैं, उनके सादृश्य का कथन करने वाला समवायांग है ।। ३५ ।।