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प्रथम अधिकार
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जिस अंग के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सादृश्य सामान्य से द्वीपादि पदार्थ जाने जाते हैं । अर्थात् समवाय का अर्थ है— सादृश्य सामान्य । वह सादृश्यपना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार का है, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा द्रव्यों के सादृश्यता का वर्णन करता है वह समवायांग है । द्रव्य समवाय का अर्थ है द्रव्यों के प्रदेशों की समानता । जैसे द्रव्य समवाय की अपेक्षा, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एक जीव और तीन ( ऊर्ध्व, मध्य और अधो) लोक ( लोकाकाश) ये समान प्रदेशी हैं । अर्थात् ये असंख्यात प्रदेशी हैं । यह द्रव्यसमवाय ( द्रव्य सादृश्य ) है ।। ३० ।।
सीमंतणरय माणुसखेत्तं उडुइंदयं च सिद्धिसिलं । सिद्धद्वाणं सरिसं खेत्तासयदो मुणेयव्वं ॥ ३१ ॥
सीमन्तनरकं मानुषक्षेत्रं ऋत्विन्द्रकं च सिद्धिशिला । सिद्धस्थानं सदृशं क्षेत्राश्रयतो मंतव्यं ॥ ओहिट्ठाणं जंबूदीवं सव्वत्थसिद्धि सम्माणं । णंदीसरवावीओ वाणिदपुराणि सरिसाणि ॥ ३२ ॥ अवधिस्थानं जम्बूद्वीपः सर्वार्थसिद्धिः समानं । नन्दीश्वरवाप्यः वानेन्द्रपुराणि सदृशानि ॥
क्षेत्र समवाय का अर्थ है क्षेत्र की सादृश्यता । जैसे सीमन्त नरक ( प्रथम नरक के प्रथम पटल का सीमन्त नामक इन्द्रक बिल ) ढाई द्वीप प्रमाण मनुष्य क्षेत्र, ऋजु विमान ( प्रथम स्वर्ग के प्रथम पटल का ऋजु नामक इन्द्रक विमान ) सिद्धशिला और सिद्धक्षेत्र ये पाँचों क्षेत्र की अपेक्षा समान हैं । अर्थात् ये पाँचों पैंतालीस लाख - पैंतालीस लाख योजन प्रमाण हैं । तथा अवधि स्थान ( सप्तम नरक मध्य का इन्द्रक बिल ) जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि का विमान नन्दीश्वर की वापिका और व्यन्तर इन्द्रों का पुर ( नगर ) ४ ये पाँच स्थान एक लाख योजन प्रमाण हैं । इनका क्षेत्र सदृश ( समान ) होने से इनको क्षेत्र समवाय समझना चाहिये ।। ३१-३२ ।।
१. एते पंच पंचचत्वारिंशलक्षप्रमिताः ।
२. व्यन्तरेन्द्राणां पुराणि ।
३. एतानि सर्वाणि स्थानानि एकलक्षयोजन प्रमितानि ।
४. इस ग्रन्थ में एक लाख के पाँच स्थानों में व्यन्तर देवों के पुरों का वर्णन है और अन्य ग्रन्थों में सुदर्शन मेरु का कथन है ।