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अंगपण्णत्त
जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप रूप नव प्रकार के पदार्थों का विषय करने वाला, अथवा जीवादि नौ पदार्थ रूप परिणमन करने वाला होने से जीव नौ प्रकार का है ।
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पृथिवी कायिक, जल कायिक, अग्नि कायिक, वायु कायिक, प्रत्येक वनस्पति कायिक, साधारण वनस्पति कायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति के भेद से दश स्थान गत होने से जीव दश प्रकार का है ।। २७ ॥
सामान्यतः संग्रह नय की अपेक्षा पुद्गल एक प्रकार का है - अणु स्कन्ध के भेद से दो प्रकार का है । इस प्रकार सर्व द्रव्यों के स्थान गत भेदों का वर्णन जिसमें किया जाता है वह स्थानांग है ॥ २८ ॥
इस स्थानांग के पदों को प्रमाण व्यालीस हजार (४२०००) है । इसके श्लोक का प्रमाण २१४५७१५४१०३००० (दो नील, चौदह खरब, सत्तावन अरब, पन्द्रह करोड़, इकतालीस लाख और तीन हजार ) है । इस अंग के अक्षरों का प्रमाण ६८,६६,२८,९३, १२,९६००० ( अड़सठ नील, छयासठ खरब, अठाइस अरब, तिरानबे करोड़, बारह लाख और छयानबे हजार ) है |
॥ इस प्रकार तीसरे स्थानांग का कथन समाप्त हुआ । समवायांग का कथन
समवायंगं अडकदिसहस्समिगिलक्खमाणुपयमेत्तं । संगहणयेण दव्वं खेत्तं कालं पडुच्च भवं ॥ २९ ॥
समवायाङ्गं अष्टकृतिसहस्रं एकलक्षमानपदमात्रं । संग्रहनयेन द्रव्यं क्षेत्र कालं प्रतीत्य भावं ॥
दीवादी अaियंति अत्था णज्जंति सरित्यसामण्णा । 'दव्वा धम्माधम्माजीवपदेसा तिलोयसमा ॥ ३० ॥
द्वीपादयो अवेयन्ते अर्था ज्ञायन्ते सदृशसामान्येन । द्रव्येण धर्माधर्मजीवप्रदेशाः त्रिलोकसमाः ॥
समवायांग एक लाख चौसठ हजार पदों प्रमाण से युक्त है तथा संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की प्रतीति लेकर द्वीपादि सादृश्य प्रदेशादि का वर्णन करता है ॥ २९ ॥
के.
१. द्रव्यापेक्षया इत्यर्थः ।