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अंगपण्णत्ति
आठ और तीन शून्य अर्थात् दो लाख अट्ठाईस हजार हैं (२२८०००)। इस अंग में जिनेन्द्र भगवान् गणधर के प्रश्नानुसार नाना प्रकार के विशेषों के कथन को कहते हैं । अर्थात् विविध प्रकार के "आख्याः " गणधर देव कृत साठ हजार प्रश्नों का व्याख्यान जिसमें किया जाता है, वह व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग कहलाता है ॥ ३६ ॥
जीव है कि नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर देकर अनुमान और आगम के द्वारा जोव के अस्तित्व की सिद्धि करता हैकिं अत्थि णस्थि जीवो णिच्चोऽणिच्चोऽहवाह कि एगो । वत्तव्वो किमवत्तव्वो हि किं भिण्णो ॥ ३७॥
किमस्ति नास्ति जीवो नित्योऽनित्योऽथवाथ किमेकः ।
वक्तव्यः किमवक्तव्यो हि किं भिन्नः ॥ गुणपज्जयादभिण्णो सट्ठिसहस्सा गणिस्स पण्हेवं । जत्थत्थि तं वियाणपण्णत्तिमंगं खु ॥ ३८॥
गुणपर्यायाभ्यामभिन्नः षष्टिसहस्राणि गणिनः प्रश्नाः।
यत्र सन्ति तद्विपाकप्रज्ञप्त्यंगं खल ॥ विवायपण्णत्ति अंगपदं २२८००० । श्लोक ११६४८१६९३७०२००० । वर्ण ३७२७४१४१९८४६४००० ।
इदि विवागपण्णत्तिअंगं गदं-इति विपाकप्रज्ञप्त्यङ्गं गतं ।।
जीव है या नहीं ? जीव नित्य है या अनित्य है ? एक है या अनेक है ? वक्तव्य है अथवा अवक्तव्य है ? अपनी गुण और पर्यायों से आत्मा सर्वथा भिन्न है या अभिन्न है ? इस प्रकार गणधर देव के साठ हजार प्रश्नों का उत्तर जिस अंग में है वह व्याख्या प्रज्ञप्ति अंग है ॥ ३७-३८ ॥
विशेषार्थ द्रव्यार्थिक नय को अपेक्षा जीव नित्य है क्योंकि जीव द्रव्य का कभी नाश नहीं होता, यदि जोव द्रव्य का नाश हो जाता तो शुभ-अशुभ क्रियाओं का फल नष्ट हो जाता है। स्मरण आदि का नाश हो जाने से लोक व्यवहार भी नष्ट हो जाता है।
पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा अनित्य है क्योंकि प्रतिक्षण पर्यायें पलटती रहती हैं । यदि द्रव्य कूटस्थ नित्य होता तो स्वर्ग आदि सुख की