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तृतीय अधिकार
२३१ रूप ही निवास स्थान हैं शेष नौ प्रकार के भवनवासी देवों में तीन प्रकार के निवास स्थान होते हैं।
ये भवन सात, आठ, नौ, दश आदि विचित्र भूमियों से भषित रत्नमाला, मणिमय द्वीपों से शोभित जन्मशाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, परिचर्यागृह और मंत्रशालाओं से रमणीय, मणिमय तोरणों से सुसज्जित द्वारों से युक्त तीन सौ योजन ऊँचे और संख्यात एवं असंख्यात योजन विस्तार काले भवन होते हैं।
उन प्रत्येक भवनों के चारों दिशाओं में एक योजन प्रमाण जाकर दो कोश ऊँचे, पाँच सौ धनुष प्रमाण विस्तृत तथा भवनों को वेष्टित करने वाले कोट हैं । उस कोट के उपरिभाग में जिन मन्दिर हैं और बाह्य भाग में चैत्यवृक्षों से युक्त पवित्र अशोक सप्तच्छेद चम्पक और आम्रवन हैं ।
चैत्यवृक्ष के मूल में चारों दिशाओं में प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित, देवों से पूजनीय पाँच-पांच जिन प्रतिमाएँ हैं। ये जिन प्रतिमा चार तोरणों से रमणीय, आठ मंगलद्रव्यों से शोभित, उत्तमोत्तम रत्नों से निमित्त मानस्तंभों से शोभित हैं।
यह चैत्यवृक्ष पृथिवोकायिक है और भवनवासी देवों के उत्पत्ति और विनाश के कारण हैं।
प्रत्येक कोट के बहु मध्यभाग में एक सौ योजन ऊँचे वेत्रासन के आकार वाले महाकूट स्थित हैं।
प्रत्येक कूट पर सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित, तीन कोट से युक्त, तीन कोट की प्रत्येक वीथी में एक-एक मानस्तम्भ, नौ स्तूप, वनभूमि, ध्वजभूमि, चैत्यभूमि से सुशोभित नन्दादि वापिकाओं से रमणीय एक-एक जिन मन्दिर है, जिसमें वन्दन मण्डप, अभिषेक मण्डप, नर्तन मण्डप, संगीत मण्डप, प्रेक्षण मण्डप, क्रीडा गृह, स्वाध्यायशाला, चित्रशाला आदि उत्तम स्थान हैं।
उन जिन मन्दिरों में श्रीदेवी, श्रुतदेवी, सर्वाह और सनतकुमार यक्ष की मूर्तियाँ तथा हाथ में चंवर लिए नाग यक्ष युगलों से युक्त, अष्ट मंगल द्रव्य से शोभित, देवच्छन्द के भीतर जिनबम्ब शोभित हैं । ऐसी शोभा से युक्त भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख हैं।
सम्यग्दृष्टि देव कर्म क्षय निमित्त नित्य जिनबिम्ब की नित्य पूजा करते हैं और मिथ्यादृष्टि देव कुल देवता समझकर उनकी पूजा करते हैं।