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अंगपण्णत्ति जोवों के भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी इन चार प्रकार के देवों के विमानों के उत्पत्ति के कारणभूत दान, पूजा, तपश्चरण, अकामनिर्जरा, सम्यग्दर्शन और संयमादि अनुष्ठानों का तथा उन देवों के स्थान, वैभव, सुख सम्पत्ति आदि का जो निरूपण करता है वह पुण्डरोक प्रकीर्णक है । उस पुण्डरीक नामक ग्रन्थ में नित्य ही शुभ भावों से नमस्कार करता हूँ॥ ३१-३२-३३ ।।
विशेषार्थ असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, स्तनितकुमार, विद्युतकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और वायुकुमार के भेद से भवननासो देव दश प्रकार के हैं ।
इन दश प्रकार के भवनवासी देवों के मुकुट में क्रम से चूड़ामणि, सर्प, गरुड़, हाथी, मगर, स्वस्तिक, वज्र, सिंह, कलश और तुरग ये दश चिन्ह हैं।
ज्ञान और चारित्र में शंका होने से, संक्लिष्ट भाव से युक्त होने से मिथ्यात्व भाव युक्तता कामिनी के विरहरूपी अग्नि से जर्जरिता, कलहप्रियता, अनन्तानुबन्धी कषाय से आसक्त अविनयता, किसी कारण से परवश होकर दुःखादि सहन करने से होने वाली अकाम निर्जरा आदि कारणों से देव आयु को बाँधकर, यह जीव भवनवासी देवों में उत्पन्न होते हैं।
अथवा जो मिथ्यादर्शन सहित तपश्चरण करते हैं, जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं, मुनियों को दान देते हैं तथा सम्यग्दर्शन सहित व्रत धारण करके भी अन्त में सभ्यग्दर्शन की विराधना करते हैं, वे जीव भवनवासी देवों में उत्पन्न होते हैं। __भवनवासी देवों के निवास स्थान भवन, भवनपुर, आवास के भेद से तीन प्रकार का है-रत्नप्रभा पृथ्वी स्थित निवास को भवन, द्वीप समुद्रों के ऊपर स्थित निवास को आवास कहते हैं। असुरकुमारों के एक भवन
अस्मत्समीपे नास्ति २१-७-२२ । तल्लक्षणं हि महच्च तत्पुण्डरीकं च महापुण्डरीकं शास्त्रं तच्च महधिकेषु इन्द्रप्रतीन्द्रादिषु उत्पत्तिकारणतपोविशेषाद्याचरणं वर्णयति । महापुण्डरियं सत्थं वणिज्जइ जत्थ महड्ढिदेवेसु । इंदपडिदाईसूपत्तीकारणतवोविसेसाइआयरणं ॥१॥