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तृतीय अधिकार
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पीत लेश्या के अंशों में परिणत होकर मरण करने वाला जघन्य आराधक है ।
अथवा सम्यग्दर्शनादि का उत्कृष्ट आराधक अयोगकेवली है, मध्यम आराधक देश संयमी से लेकर सर्व संयमी है और जघन्य आराधक अविरतसम्यग्दृष्टि है ।'
इस प्रकार जिस ग्रन्थ में जिनकल्पी, स्थविरकल्पी मुनियों के संहनन, द्रव्य, क्षेत्र, काल भावादि के अनुसार सम्यग्दर्शनादि चार प्रकार की आराधना, उनके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य रूप से आराधना करने वाले तीन प्रकार के आराधक और आराधना में ही प्ररूपित की ही विशेष पर्याय स्वरूप दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कार काल, समाधिकाल, उत्तमार्थकाल आदि के स्वरूप का विस्तार रूप से कथन 'किया गया है । जो ग्रन्थ आराधनादि के स्वरूप का वर्णन करता है वह महाकल्प नामक प्रकीर्णक है ।
॥ इति महाकल्प प्रकीर्णक समाप्त ॥ gures प्रकीर्णक का कथन पुंडरियणामसत्यं नमामि णिच्चं सुभावेण ॥३१॥
पुंडरीकनाम शास्त्र नमामि नित्यं सुभावेन ॥ भावर्णावतरजोइस कप्पविमाणेसु जत्थ वणिज्जइ । उप्पत्तीकारण खलु दाणं पूयं च तवयरणं ||३२|| भावनव्यन्तरज्योतिष्क कल्पविमानेषु यत्र वर्ण्यते ।
उत्पत्तिकारणं खलु दानं पूजा च तपश्चरणं ॥ सम्मत्त संजमादि अकामणिज्जरणमेव जत्थ पुणो । तमुवादट्ठाण वेहवसुहसंपत्ती च जीवाणं ॥३३॥
सम्यक्त्व संयमादि अकामनिर्जरा एव यत्र पुनः । तदुत्पादस्थानवैभव सुखसंपत्तिश्च जीवानां ॥ इदि महपुंडरी " - इति महापुंडरीकं ।
१. भगवती आराधना १९१८ - १९२१ ।
२. महापुण्डरीयं अस्य स्थाने पुण्डरीयं इत्येव भाव्यं । महापुण्डरीकस्य लक्षणं - पुस्तकाच्च्युतं अस्मदृष्टिदोषाद्वा गतमिति न जानीमः । लिखितपुस्तकं त्वधुना