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अंगपण्णत्ति परमात्म पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकार भावों को कृश करने रूप भाव सल्लेखना तथा भाव सल्लेखना की साधनीभूत कायक्लेशादि का अनुष्ठान रूप द्रव्य सल्लेखना है इन दोनों सल्लेखना का आचरण करना सल्लेखना काल है।
विधिपूर्वक द्रव्य और भाव सल्लेखना का धारी तद्भव मोक्षगामी या दो तीन भव में मोक्ष प्राप्त करने वाला महामुनि इच्छा निरोध रूप तपश्चरण में स्थित होता है। वा इङ्गिनीमरण, प्रायोपगमनमरण, भक्तप्रत्याख्यान रूप समाधि को धारण करना वह उत्तमार्थ काल है।'
राध, साध, संसिद्धि ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप रूप आत्मधर्म की आराधना करना, सिद्धि करना, इनका द्योतन, इनमें परिणति करना, इनको दृढ़तापूर्वक धारण करना, किसी कारणवश इनके मन्द पड़ जाने पर पुनः सम्यग्दर्शनादि को जागृत करना, धारण किये हुए व्रतों का आमरण पालन करना आराधना कहलाती है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप के भेद से आराधना चार प्रकार की है।
जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है और उनको जानना सम्यग्ज्ञान है । अपने स्वरूप में लीन होना वा पंच महाव्रतादिक का पालन करना सम्यक्चारित्र है तथा इच्छाओं का निरोध वा आत्म स्वरूप में तप करना तप है। इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यकतप को धारण पालन आदि करना सम्यग्दर्शन आदि आराधना है।
दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना तथा उत्तम अर्थ स्थान की प्राप्ति ये सब आराधना में ही प्ररूपित हैं ।२ आराधना के ही विशेष भेद हैं।
उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से आराधना के आराधक तीन प्रकार के हैं अतः आराधना भी तीन प्रकार की है।
शक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंशों में परिणत होकर जो क्षपक आराधना करता है और मरण करता है वह उत्कृष्ट आराधक है।
शक्ललेश्या के मध्यम या जघन्य अंश और पद्म लेश्या के उत्कृष्ट अंश में मरण करने वाला मध्यम आराधक है। १. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति भा. १७३ । २. गो. जी. प्रबो० ३६८ ।