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तृतीय अधिकार
२२३ याचना नहीं करना याचना परीषह जय है। अनेक दिनों तक आहार न मिलने पर भी मन में खेद नहीं करना, लाभ की अपेक्षा अलाभ को ही तप का हेतु समझसा अलाभ परीषह जय है ।
शारीरिक रोगों के उत्पन्न होने पर भी रंच मात्र मानसिक आकूलता का नहीं होना, औषधि आदि ने उसके प्रतिकार की भावना नहीं करना रोग परीषह जय है।
चलते समय काँटे आदि के चुभने पर खेद खिन्न नहीं होना तृण स्पर्श परीषह जय है।
पसीना आदि से शरीर पर धूलि आदि के जम जाने पर उत्पन्न खुजली आदि से खेद खिन्न नहीं होना, शरीर को नहीं खुजलाना मल परीषह जय कहलाता है।
प्रशंसा करने को सत्कार तथा किसी कार्य में किसी को प्रधान बना देना पुरस्कार है। लोगों द्वारा सत्कार पुरस्कार न दिये जाने पर मलिन चित्त नहीं होना सत्कार पुरस्कार परीषह जय है ।
तर्क, व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलंकार, अध्यात्मशास्त्र आदि विद्याओं में निपुण होने पर भी ज्ञान का मद नहीं करना प्रज्ञा परीषह जय है।।
सकल शास्त्रों के पारगामी होने पर भी दूसरों के द्वारा किये गये, यह महामूर्ख आदि आक्षेपों को सुनकर मन में कषायों का प्रादुर्भाव नहीं होना अज्ञान परीषह जय है ।
चिरकाल तप करने पर भी ऋद्धियों आदि के उत्पन्न न होने पर भी यह विचार नहीं करना कि यह दीक्षा निष्फल है । व्रतों का धारण करना व्यर्थ है, यह अदर्शन परीषह जय है ।
इन बाईस परीषहों को सहन करने से आस्रव का विरोध करने वाली ( संवर पूर्वक ) निर्जरा होती है ।
किसी भी बाह्य निमित्त से अचानक आ जाने वाली विपत्ति को उपसर्ग कहते हैं । वह उपसर्ग चार प्रकार का होता है-अचेतनकृत, मनुष्यकृत, तियं चकृत और देवकृत।
अचेतन धूलि कण्टक, अग्नि, जल आदि के द्वारा जो कष्ट उत्पन्न होते हैं वह अचेतन कृत उपसर्ग हैं । जैसे शिवभूति मुनिपर वृणपुंज आकर गिर गया परन्तु मुनिराज अपने ध्यान से विचलित नहीं हुये।