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अंगपण्णत्ति
___ मनुष्यकृत उपद्रव मनुष्यकृत उपसर्ग कहलाता है जैसे राजकुमार, पाण्डव, अकम्पनाचार्य आदि पर होने वाला उपसर्ग।
सुकुमाल, सुकोशल आदि के समान तियंचकृत उपद्रव तिर्यंचकृत उपसर्ग कहलाता है।
श्रीदत्त, विद्युच्चर आदि मुनिगणों पर देवों के द्वारा किये गये उपद्रवों को देवकृत उपसर्ग कहते हैं। परीषह एवं उपसर्ग सहन करने को विधि
आत्मचिन्तन से मन एकाग्र हो जाता है और इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं तथा मन के एकाग्र हो जाने से स्वसंवेदन के द्वारा आत्मा की अनुभूति होती है जहाँ आत्मा की अनुभूति होती है, आत्मलीनता होती है वहाँ बाह्य सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता अतः उपसर्य और परीषहों को सहन करने की विधि या उपाय है आत्मचिन्तन, आत्मलीचता तथा वस्तु स्वरूप का मनन, चिन्तन, स्मरण ।
परीषह एवं उपसर्ग के सहन करने का फल है-नवीन कर्मों का संवर और पुरातन कर्मों की निर्जरा । पूज्यपाद स्वामी ने कहा है-भूख, प्यास आदि वेदन का अनुभव न करने से तथा आत्मा का आत्मा में स्थिर हो जाने से शुभाशुभ कर्मों की संवर पूर्वक निर्जरा होती है। जो मानव परीषहों को सहन करते हैं वे उपसर्ग दुःस्व संकट आने पर अपने संयम से च्युत नहीं होते। ___इस प्रकार उपसर्ग एवं परीषह का स्वरूप, उनके सहन करने की विधि तथा उनके सहन करने का फल का कथन उत्तराध्ययन में किया जाता है।
॥ इति उत्तराध्ययन प्रकीर्ण समाप्त ।।
कल्प प्रकीर्ण का कथन । कप्पव्ववहारो जहिं वहिज्जइ जोग कप्पमाजोगा। सत्थं अवि इसिजोग्गं आयरणं कहदि सव्वत्थ ॥२७॥
कल्पव्यवहारः यत्र व्यवह्रियते योग्यं कल्प्यं अयोग्यं । शास्त्रमपि ऋषियोग्यं आचरणं कथयति सर्वत्र ॥
एवं कप्पववहारो गो-एवं कल्पव्यवहारो गतः। कल्प नाम आचार का है और उस आचार के वर्णन करने का नाम कल्प व्यवहार है । जो प्रकीर्णक ( शास्त्र । ऋषियों के योग्य आचरण का