________________
अंगपण्णत्त
उपवास व गर्मी आदि के कारण तीव्र प्यास लगने पर उसका प्रतिकार नहीं करना, अपितु सन्तोषरूपी जल के द्वारा प्यास को शान्त करना तृषा परीष जय है ।
शीतकालीन ठण्डी वायु या हिम की असह्य शीत को शांतिपूर्वक सहन करना शीत परीषह जय है ।
२२२
ग्रीष्मकाल की प्रचण्ड गर्म वायु आदि से उत्पन्न वेदना को समतापूर्वक सहन करना उष्ण परीषह जय है ।
नग्नता के प्रति अपने मन में किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होने देना नग्न परीषह जय है । नागन्य से ही ब्रह्मचर्य व्रत का निर्दोष पालन होता है ।
इन्द्रिय विषयों से विरक्त होकर, संगीत आदि से रहित शून्यगृह, वृक्ष, कोटर आदि में निवास करना तथा स्वाध्याय में लीन रहना, अरति परी - हज है ।
स्त्रियों के भ्र- विलास, नेत्र कटाक्ष, श्रृंगार आदि को देखकर मानसिक विकार उत्पन्न नहीं होना, कछुए के समान इन्द्रियों और मन का संयमन करना स्त्री परीषह जय है ।
नंगे पैर चलते समय कंकड़, काँटे आदि के चुभने पर उत्पन्न वेदना को समतापूर्वक सहन करना चर्या परीष ह जय है ।
ध्यान, स्वाध्याय के लिए नियतकाल पर्यन्त स्वीकार किये गये आसन से देवादि कृत उपसर्ग आने पर भी च्युत नहीं होना निषद्या परीषह जय है ।
ऊँच, नीच, कंकड़, बालू आदि से कठोर भूमि पर एक करवट से लकड़ी, पत्थर के समान निश्छल सोना शय्या परीषह जय है ।
दुष्ट और अज्ञानी जनों के द्वारा कहे गये कठोर वचन व असत्य दोषा - रोपण को सुनकर हृदय में रंच मात्र भी कषाय नहीं करना आक्रोश परीषह जय है ।
तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों के द्वारा शरीर पर प्रहार करने वाले पर द्वेष नहीं करना अपितु पूर्वोपार्जित कर्म का फल विचार कर शान्तिपूर्वक सहन वध परीष जय है ।
तप या रोग के द्वारा शरीर सूख कर अस्थिपंजर मात्र बन जाने पर भी दीन वचन, सुखवैवर्ण्य आदि के द्वारा भोजन, औषधि आदि की