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तीय अधिकार
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आदि पाँच आचार तथा दर्शन, विनय आदि पाँच प्रकार के विनय वर्णन जिसमें हैं वह दशवेकालिक है ।
॥ इस प्रकार दशवैका लिक प्रकीर्णक समाप्त ॥ उत्तराध्ययन नामक प्रकीर्णक का कथन उत्तराणि अहिज्जंति उत्तरझयणं मदं जिणिदेहि । बावीसपरीसहानं उवसग्गाणं च सहणविहिं ॥ १५ ॥ उत्तराणि अधीयन्ते उत्तराध्ययनं मतं जिनेन्द्र : । द्वाविंशतिपरीषहानां उपसर्गाणां च सहनविधि ॥ वष्णेदि तत्फलमवि एवं पन्हे च उत्तरं एवं । कहदि गुरु सोसयाणं पइण्णिय अट्ठम त खु ॥२६॥ वर्णयति तत्फलमपि एवं प्रश्ने च उत्तरं एवं ।
कथ्यति गुरुः शिष्येभ्यः प्रकीर्णकं अष्टमं तत्खलु ॥ इति उत्तरायणं - इत्युत्तराध्ययनं ।
चार प्रकार ( तिर्यञ्च, मानव, देव और अचेतन कृत) के उपसर्गों को कैसे सहन करना चाहिये, बाईस परीषहों के सहन करने की विधि क्या है, उपमर्ग एवं परीषहों को सहन करने से क्या फल प्राप्त होता है इत्यादि प्रश्नों का उत्तर गुरु-शिष्यों के लिए देते हैं तथा प्रश्नों का उत्तर जिसमें पढ़े जाते हैं उनके प्रश्नों का अध्ययन किया जाता है, वह अष्टम उत्तराध्ययन नामक प्रकीर्णक कहलाता है || २५-२६।।
विशेषार्थ
परीषह किसको कहते हैं, परीषह उपसर्ग सहन करने की प्रक्रिया क्या है, उनके सहन करने से क्या फल प्राप्त होता है ऐसा प्रश्न पूछने पर उत्तर दिया जाता है वह उत्तराध्ययन है । सन्मार्ग से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा करने के लिए जो सहन की जाती है उसको परीवह कहते हैं अर्थात् क्षुधादि वेदना के होने पर भी कर्म निर्जरा के लिए सहन करना परीषह कहलाती है ।
भूख प्यास आदि अनेक प्रकार की तीव्र वेदना आने पर भी संक्लेश परिणाम नहीं होना परीषह जय है । वे परोषह निम्न प्रकार हैं
निर्दोष आहार न मिलने पर अथवा अल्प आहार मिलने पर मानसिक खेद नहीं होना व कर्म निर्जरा के लिए समतापूर्वक क्षुधा वेदना को सहन करना क्षुधा परीषह जय कहलाता है ।