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अंगपत्ति जिनका वर्णन कृतिकर्म में किया है। कौनसी क्रिया किस समय करनी चाहिए उसको वैकालिक कहते हैं। जैसे-प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, देववन्दना, स्वाध्याय, अष्टमी, चतुर्दशी, नन्दीश्वर, वर्षा योग, पंच कल्याण, मंगल गोचर आदि क्रियाओं का जो काल कहा है उस विशिष्ट काल में उन क्रिया को करना दशवकालिक कहलाता है।
चार स्वाध्याय काल, दो प्रतिक्रमण काल, तीन वन्दना काल और प्रत्याख्यान का काल ये दश विशिष्ट काल हैं इसमें होने वाली क्रिया को दशवैकालिक क्रिया कहते हैं।
प्रातःकाल सूर्योदय काल के दो घटिका काल व्यतीत होने के बाद से लेकर बारह बजे के दो घटिका पूर्व काल पौर्वाह्निक स्वाध्याय का काल है। बारह बजे के दो घटिका के बाद और सूर्यास्त के दो घटिका पूर्व का काल मध्याह्न स्वाध्याय का है।
रात्रि प्रारम्भ के दो घटिका बीत जाने पर स्वाध्याय आरम्भ का काल है और १२ बजने के काल के दो घटिका पूर्व स्वाध्याय समाप्ति का काल है। तत्पश्चात् बारह बजने के दो घटिका बीत जाने पर स्वाध्याय का प्रारम्भ काल है और सूर्योदय के दो घटिका पूर्व स्वाध्याय की समाप्ति का काल है । ये चार स्वाध्याय काल हैं।
वैरात्रिक स्वाध्याय के अनन्तर प्रतिक्रमण काल है वह रात्रिक प्रतिक्रमण है। मध्याह्निक स्वाध्याय काल के बाद देवसिक प्रतिक्रमण किया जाता है ये दो सन्ध्या प्रतिक्रमण का काल है। तीनों संध्या तीन वन्दना का काल है।
प्रातःकालीन स्वाध्याय के अनन्तर देववन्दना करके प्रत्याख्य को निष्ठापन करके आहार को जाना यह प्रत्याख्यान काल है । इस प्रकार ये दश विशिष्ट काल हैं । इन विशिष्ट कालों में होने वाली क्रिया है कि किस क्रिया में कितने कायोत्सर्ग हैं, कौनसी भक्ति का पाठ करना चाहिए इत्यादि का कथन दशवैकाशिक क्रिया कहलाती है। इन क्रियाओं का विशेष कथन मूलाचार, अनागारधर्मामृत आदि ग्रन्थों से जानना चाहिए।
संक्षेप में इनका वर्णन कृतिकर्म में किया है वहाँ से जानना चाहिए।
इस प्रकार दशवैकालिक क्रियाओं का, पिण्डशुद्धि का और दर्शनाचार १. विकाल में होने वाली क्रियाओं का विशेष खुलासा नहीं हो रहा है । २. चौबीस मिनट की घटिका होती है ।