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तृतीय अधिकार तथा राजादिक का भय होने से, लोक निन्दा होने से अथवा संयम के लिए, वैराग्य के लिए, द्रव्य, क्षेत्र, काल के आश्रय से योग्य-अयोग्य को जानकर भिक्षा शुद्धि से युत होकर आहार करते हैं अतः आचार्यों ने साधु जनों को आदेश दिया है कि योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जानकर इस प्रकार चेष्टा करें कि शुद्ध निर्दोष चर्या से आत्मध्यान की उमंग बढ़ती रहे । इस प्रकार आहार के दोषों और अन्तराय को टालकर आहार लेना आहारशुद्धि या पिण्डशुद्धि है। ___ मन शुद्धि से आत्म परिणाम विशुद्धि कही जाती है। दाता की परिणाम विशुद्धि मन शुद्धि है । पात्र में ईर्षा नहीं होना, त्याग में विषाद नहीं होना, दान देने वाले में और पात्र में प्रीति होना, दया, क्षमा, कुशल अभिप्राय, प्रत्यक्ष फल की आकांक्षा नहीं करना, निदान नहीं करना, किसी से विसंवाद नहीं करना, श्रद्धा भक्ति, निर्लोभता, सन्तोष, अलुब्धता ये दाता के गुण भी भाव विशुद्धि है । संक्लेश परिणामों के आहार देना योग्य नहीं है ।
असभ्य, कटु, परनिन्दा कारक, सावद्ययुक्त वचन नहीं बोलना, शिष्ट आदर सूचक वचन बोलना वचनशुद्धि है।
शरीर में कूष्ठ आदि रोग का नहीं होना, सूतक-पातक वाला नहीं हो, चण्डाल, नापित, रजक आदि हीन जाति का न हो, विजातीय विवाह वा विधवा से उत्पन्न हुआ न हो इत्यादिक की सूचक कायशुद्धि है तथा रोगी, अतिवृद्ध, बालक, उन्मत्त, अंधा, गूंगा, अशक्त, भय युक्त, शंका युक्त आहार नहीं लेना। यह सब कायशुद्धि में गभित है। आहारशुद्धि के प्रकरण में छह बातें विख्यात हैं-द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि ।
देने योग्य पदार्थ, शास्त्रोक्त विधि से द्रव्य शुद्ध होना द्रव्यशुद्धि है अथवा चौदह मल दोष रहित, यत्नपूर्वक शोधा हुआ आहार द्रव्यशुद्ध है।
सूर्योदय से तोन घटिका बाद सूर्यास्त के तीन घटिका पूर्व का ही काल में आहार ग्रहण करना कालशुद्धि है।
आहार लेने का जो क्षेत्र है वह कैसा होना चाहिए। गीला न हो, अन्धकार युक्त न हो, मद्य, मांस आदि से युक्त न हो यह क्षेत्रशुद्धि है। इनका विशेष विस्तार मूलाचार आदि ग्रन्थों से जानना चाहिए। ___ इस प्रकार जिस ग्रन्थ में मुनिगणों के आहार की विशुद्धि का वर्णन है तथा दशकालिक का अर्थ विशिष्ट काल में होने वाली मुनियों की क्रिया