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तृतीय अधिकार
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की महिमा बताकर वा मन्त्र के द्वारा व्यन्तर आदि देवों को बुलाकर आहार लेना मन्त्रोपजीवन दोष है ।
१६ - चूर्णोपजीवन दोष - शरीर की शोभा बढ़ाने वाले चूर्ण आदि के द्वारा गृहस्थ को आकर्षित करके आहार लेना चूर्णोपजीवन दोष है ।
ये १६ दोष मुनिराज के आश्रित हैं, क्योंकि ऐसी क्रिया करके मुनिराज आहार लेते हैं ।
अशन सम्बन्धी दश दोषों का कथन इस प्रकार है
१ - जिस भोजन में प्रासुक है कि अप्रासुक है । इस प्रकार शंकित होकर आहार लेना शंकित दोष है ।
२- चिकने हाथ या बर्तन से दिया गया आहार लेना भ्रक्षित दोष है । ३- सचित वस्तु पर रखा हुआ आहार ग्रहण करना निक्षिप्त दोष है । ४- सचित पत्ते आदि से ढका हुआ आहार लेना पिहित दोष है । ५ - हस्तगत आहार को अधिक नीचे गिराना, थोड़ा खाना उज्झित दोष है ।
६ - भाजन आदि का लेन-देन शीघ्रता से कर बिना देखे भोजन पान लेना संव्यवहरण दोष है ।
७- मद्यपायी, रोगी, सूतक पातक वाले, नपुंसक, मुर्दे जलाकर आये हुए, दासी, दास, आधिका, अन्यभेषधारी, अंग मर्दन करके आजीविका करने वाले, अति बालक, अत्यधिक वृद्ध, खाते हुए, मुनिराज से ऊँचे स्थान पर खड़े हुए, अधिक नीचे स्थान पर खड़े हुए, इत्यादि शास्त्र निषिद्ध दातार के हाथ से आहार लेना दातृदोष है ।
८- सचित अप्रासुक जल आदि से मिले हुए आहार को ग्रहण करना उन्मिश्र दोष है ।
९- अग्नि से जो पूर्णतया परिपक्व न हो, जिसका रस, वर्ण, गन्ध, परिवर्तित नहीं हुआ है, उस आहार को ग्रहण करना अपक्व दोष है ।
१० - घृत आदि से लिप्त चम्मच आदि से आहार लेना लिप्त दोष है । ये दश असन दोष हैं
१ - जिह्वा इन्द्रिय के स्वाद के लिये आहार में नमक आदि मिलाकर खाना संयोजन दोष है ।
२- भूख से अधिक भोजन करना अप्रमाण दोष है ।
३ - रुचिकर भोजन मिलने पर राग भाव से रुचिपूर्वक ग्रहण करना अंगार-दोष है ।