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अंगपण्णत्ति
२१२ श्रावक के आन्तरिक भक्ति या अनुराग के द्योतक हैं। पात्र के प्रति श्रावक का कितना आदर है, वह इन पाँच क्रियाओं से प्रकट होता है।
श्रावक और मुनि का परस्पर गुरु-शिष्य का सम्बन्ध रहता है। गुरु शिष्य का विश्वास रखता है। आहारशुद्धि श्रावक पर निर्भर रहती है । अतः श्रावक कहता है 'गुरुदेव ! यह आहार शद्ध है और मेरा मन, वचन, काय भी शुद्ध है।
आहार की शुद्धि के कारण आठ हैं-उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजन, प्रमाण, अंगार, धूम, अधःकर्म इन दोषों से रहित आहार (भोजन) शुद्ध आहार वा पिण्डशुद्धि कहलाती है।
इन आठों का संक्षेप में स्वरूप इस प्रकार हैउद्गम दोष के १६ भेद हैं
१-औदेशिक दोष-नाग, यक्ष देवता, अन्य पाखण्डी, दीनजन वा दिगम्बर जैन मुनि आदि किसी का भी उद्देश (निमित्त) लेकर बनाया हुआ आहार औद्देशिक दोष से दूषित कहलाता है।
२-अध्यधि दोष-संयमी मुनिराज को आते हुए देखकर उनको देने के लिए अपने निमित्त पकते हुए जल, चावल आदि में जल-चावल आदि डालकर पकाना अध्यधि दोष है।
३-पूति दोष-जिस पात्र से अन्य भेषी आदि को बाहर दिया है उस पात्र में पकाया हुआ आहार दिगम्बर साधु को देना या प्रासुक वस्तु में सचित जलादि अप्रासुक वस्तु मिलाकर देना पूति दोष है।
४-मिश्र दोष-प्रासुक आहार दिगम्बर साधु को और अन्य गृहस्थादि को साथ में देना मिश्र दोष है।
५-स्थापित दोष-जिस पात्र में वा घर में भोजन पकाया है उस भाजन से दूसरे भाजन में निकाल कर दूसरे घर में स्थापित कर संयमी को देना स्थापित दोष है।
६-बलि दोष-यक्ष, नाग आदि की पूजा के लिए बनाए हुए आहार को साधु को देना बलि दोष है।
७-प्राभृत दोष-आहार देने की तिथि के नियम का उत्कर्षण (बढ़ाकर) करके अपकर्षण (घटाकर) करके देना प्राभृतदोष है।
८-प्रादुष्कार दोष- साधु के घर में आ जाने के बाद भोजन-भाजन आदि को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाना, भाजन को माँजना, साधु के जाने के बाद दीपक से प्रकाश करना प्रादुष्कार दोष है ।