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तृतीय अधिकार
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पंच महाव्रत, पंच समिति और तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र का निर्दोष पालन करना अथवा बाह्याभ्यन्तर क्रियाओं का निरोध कर निज स्वरूप में लीन होना चारित्राचार है।
___ अनशन (उपवास करना) अवमौदर्य (भूख से कम खाना) रस परित्याग (घृतादि रसों का त्याग करना) वृत्तिपरिसंख्यान (आहार को जाते समय अटपटी प्रतिज्ञा लेना) विविक्तशय्यासन (स्वाध्याय और ध्यान की वृद्धि के लिए एकान्त में बैठना, शयन करना) कालक्लेशकाय का शोषण करना ये छह बहिरंग तप हैं। विनय (पूज्य पुरुषों का आहार) वेयावृत्य (आचार्य आदि की) निर्दोष रूप से सेवा आदि करना । स्वाध्याय (शास्त्रों का पठन, पाठन करना) प्रायश्चित्त (व्रतों में लगे हुए दोषों का निराकरण करने के लिये दण्ड लेना) व्युत्सर्ग (शरीर से ममत्व का त्याग करना) और ध्यान करना ये छह अन्तरंग तप हैं। इन बारह प्रकार के तपश्चरण का आचरण करना तथा समस्त बाह्य पदार्थों की इच्छाओं का निरोध कर निज स्वरूप में रमण करना तपाचार है।
अपनी शक्ति के अनुसार ज्ञानाचार आदि में प्रवृत्ति करना अथवा दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तपाचार, चारित्राचार रूप आचारों में प्रवृत्ति करने में शक्ति नहीं छिपाना वीर्याचार है वा अपनी शक्ति का विकास कर मुनिव्रत धारण करना वीर्याचार है।
पिण्डशुद्धि-पिण्ड शब्द के अनेक अर्थ होते हैं अन्न, ग्रास, शरीर, घटका एक देश आदि' । यहाँ पर पिण्डशुद्धि का अर्थ आहार शुद्धि है तथा दाता की शुद्धि है। जिसका अर्थ है मुनिजनों को किस प्रकार का आहार लेना चाहिए उनके योग्य आहार कैसा होता है।
जब साधु श्रावक के घर आहार करने जाता है तब श्रावक उनकी नवधा भक्ति करता है उसमें पडगाहन, उच्चासन, पादप्रक्षालन, पूजन, नमस्कार करके "मन शुद्ध, वचन शुद्ध, काय शुद्ध और आहार जल शुद्ध", ऐसा कहकर श्रावक साधु को “आहार ग्रहण करो" इन शब्दों में आहार ग्रहण करने का आग्रह करता है इसमें पडगाहन करना, उच्चासन देना, पादप्रक्षालन करना, पूजन करना और नमस्कार करना, ये पाँच क्रियायें १. पिण्डो वृन्दे जपा पुष्पे गोले बोलेडंग सिहयोः । कवले पिण्डं तु वैश्मैक देशे
जीवनाय सो । बले सान्द्रे पिण्डयलाबूखजू येस्तिगरेऽपिच इति हेमचन्द्रः । मेदनी कोष में भी पिण्ड के अनेक अर्थ हैं ।