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अंगपण्णत्ति
विशेषार्थ विशिष्ट काल को विकाल कहते हैं और विकाल में होने वाली क्रियाओं को वैकालिक कहते हैं और जिसमें दशवैकालिकाओं का वर्णन किया जाता है वह दशवैकालिक है। जो मुनिजनों के आचरण विधि, गोचर विधि और पिण्ड शुद्धि का कथन करता है। ___मोक्ष प्राप्ति के लिए किये गये अनुष्ठान विशेष को आचार कहते हैं।
और आचार के विषय को गोचर कहते हैं अथवा आत्मशुद्धि के लिए सम्यग्दर्शनादि में जो प्रयत्न किया जाता है, वह आचार है।
ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार, वीर्याचार और चारित्राचार के भेद से आचार पाँच प्रकार का है।
आराधना योग्य, चिदानन्द रूप शुद्धात्मतत्त्व से भिन्न सर्व पर पदार्थ हेय हैं, इस प्रकार दृढ़ प्रतीति, अटल श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं उस दर्शन का जो आचरण अर्थात् आत्म स्वरूप में परिणमन दर्शनाचार कहलाता है।
अथवा निशंकित्व, निःकांक्षित, निजुगुप्सा, अमूढदृष्टित्व, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना इन सम्यग्दर्शन के आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन का पालन करना दर्शनाचार है ।
वर्ण, पद और वाक्य को शुद्ध पढ़ना, अनेकान्त स्वरूप अर्थ को शुद्ध पढ़ना, शब्द और अर्थ ( वाक्य और वाच्य ) दोनों को शद्ध पढ़ना, शास्त्रोक्त काल में स्वाध्याय करना, पढ़ाने वाले गुरु का और पढ़े हुए शास्त्रों का नाम नहीं छिपाना, मन, वचन, काय से शास्त्र का विनय करना, शास्त्र की पूजा आदि करके पढ़ना और शास्त्र के अर्थ का अवधारण करना ये आठ प्रकार का ज्ञानाचार है।
अर्थात् ज्ञान के काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्निव, अर्थ व्यंजन और तदुभय ये आठ अंग हैं इनसे युक्त होना ज्ञानाचार है। ___ संशय, विमोह, विनम्र रहित निज शुद्धात्मज्ञान में परिणमन करना, रमण करना ज्ञानाचार है अथवा स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा मिथ्यात्व, राग, द्वेषादि परभावों से भिन्न निज शुद्धात्मा को जानना सम्यग्ज्ञान है तथा अपनी शुद्धात्म संवेदन रूप ज्ञान में ही आचरण करना निश्चय ज्ञानाचार है।
१. षट्खण्डागम प्रथम पुस्तक । गोम्मट्टसार जीव प्रबोधिनी कथा । २. द्रव्यसंग्रह टीका-५२/२१ ।