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तृतीय अधिकार २६-वृद्धावस्था या रोग के कारण कायोत्सर्ग को छोड़ देना, नित्यनैमित्तिक कृतिकर्म में पूर्ण कायोत्सर्ग नहीं करना व्योपेक्षाविवर्जन नामक दोष है।
२७-कायोत्सर्ग करते समय चित्त का स्थिर नहीं होना, विक्षिप्त रहना व्याक्षेपासक्तचित्तता नामक दोष है ।
२८-समय की कमी के कारण कायोत्सर्ग के विविध अंशों में कमी करना, भक्ति दण्डक आदि पूरे नहीं बोलना, जितने श्वासोच्छ्वास में कायोत्सर्ग कहा है उतने काल तक नहीं करना कालझेपातिक्रम दोष है।
२९-लोभवश चित्त में विक्षेप करके कायोत्सर्ग करना लोभाकुलता दोष है। ___३०-कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक से शून्य होकर कायोत्सर्ग करना मूढ़ता नामक दोष है। - ३१-हिंसादि पापों में आसक्त चित्त होकर कायोत्सर्ग करना पापकर्मैकसर्गता नामक दोष है ।
३२-सिर को नीचा करके कायोत्सर्ग करना लंबित दोष है।' जिस ग्रन्थ में कृतिकर्म का, कृतिकर्म की क्रिया, नन्दीश्वर, अष्टाह्निक, देवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमण क्रिया में किस प्रकार करना चाहिए तथा कृतिकर्म के बत्तीस दोषों का तथा कृतिकर्म के कितने कायोत्सर्ग हैं, कायोत्सर्ग के कितने दोष हैं । इन सबका विस्तारपूर्वक कथन जिसमें प्ररूपित है उसको कृतिकर्म प्रकीर्णक कहते हैं।
॥ इस प्रकार कृतिकर्म प्रकीर्णक समाप्त हुआ ।।
दशवेकालिक प्रकीर्णक का कथन जदिगोचारस्स विहिं पिंडविसुद्धि च जं परूवेदि । दसवेयालियसुत्तं दह काला जत्थ संवृत्ता ॥२४॥
यतिगोचरस्य विधि पिण्डविशुद्धि च यत् प्ररूपयति । दशवैकालिकसूत्र दश काला यत्र समुक्ताः ॥
इति दहवेकालियं-इति वशवकालिकं । जो मुनिजनों के गोचर विधि और पिण्ड शुद्धि का प्ररूपण करता है अथवा जिसमें दशवैकालिक सूत्र का वर्णन किया गया है वह दशवैकालिक प्रकीर्ण है ।। २४ ॥ १. इन दोषों का वर्णन (कथन) अनागारधर्मामृत के अनुसार किया है ।
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