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तृतीय अधिकार
२०५ अंकुशित दोष-अपने मस्तक पर अंकुश की तरह अँगूठा रखकर वन्दना करना। ___ कच्छपरिगित दोष-वन्दना करते समय बैठे-बैठे कछुए के समान सरकना व कटि भाग को इधर-उधर करना। ___ मत्स्योद्वर्त दोष-मच्छली के समान एक पार्श्व से कटि भाग को उचका कर वन्दना करना।
मनोदुष्ट दोष-गुरु आदि पर क्रोध करके दुष्ट मनोभाव से वन्दना करना।
वेदिकाबद्ध दोष-वेदी के आकार में दोनों हाथों से बायें और दायें स्तन प्रदेशों को दबाते हुए वन्दना करना, अथवा दोषों हाथों से दोनों घुटनों को बाँधते हुए वन्दना करना।
भय दोष-मरण भय, वेदना भय, इहलोक भय, परलोक भय, अकस्मात् भय, अनगुप्त भय और अनरक्ष भय, इन भयों से भयभीत होकर वन्दना करना।
विभ्यता दोष-आचार्य देव के भय से कृतिकर्म करना।
ऋद्धिगौरव दोष–मेरा कृतिकर्म देखकर चार प्रकार के मुनिगणों का संघ मेरा भक्त हो जायेगा, ऐसी भावना रखकर वन्दना करना।
गौरव दोष-अपने माहात्म्य की भावना रखकर ( इस प्रकार वन्दना करने से मेरी ख्याति होगी ऐसी भावना कर ) कृतिकर्म करना ।
......''दोष-गुरू आदि से छिपकर देव वन्दना करना।
प्रतिनी दोष-गुरू की आज्ञा की अवहेलना कर उसके प्रतिकूल वृत्ति रखकर उनकी आज्ञा न मानकर देव वन्दना करना।
प्रदुष्ट दोष-किसी के साथ कलह हो जाने पर उनसे क्षमा याचना न करके या स्वयं उसको क्षमा न करके देव वन्दना करना।
तजित दोष-स्वयं किसी को तर्जना करते हुए अथवा आचार्य के द्वारा तजित ( आचार्य के डाँटने पर ) होकर देव वन्दना करना।
शब्द दोष-वार्तालाप करते हुए कृतिकर्म करना वा प्रपंच में वन्दना करना।
लिप्त दोष-दूसरों का उपहास आदि करके या वचनों के द्वारा आचार्य आदि का तिरस्कार करके देव वन्दना करना।
कुंचित दोष-संकुचित हाथों से सिर का स्पर्श करते हुए वन्दना