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अंगपण्णत्ति करना अथवा दोनों घुटनों के बीच में सिर रखकर, संकुचित होकर वन्दना करना।
दुष्ट दोष-दिशा की ओर देखते हुए वन्दना करना ।
अदृष्ट दोष-गुरु के आँखों से ओझल होकर या पिच्छिका से भूमि को प्रमार्जन न करके वन्दना करना ।
संघकर मोचन दोष-संघ का कर चुकाना मानकर वन्दना करना।
अनालब्ध दोष-कमण्डलु आदि उपकरण के लाभ की इच्छा से आवश्यक क्रिया करना।
आलब्ध दोष-पिच्छिका आदि उपकरण के लाभ हो जाने पर कृतिकर्म करना।
होन दोष-शास्त्रोक्त विधि से दण्डक आदि बोलकर काल के अनुसार कृतिकर्म नहीं करना ।
उत्तर चूलिका दोष-वन्दना करने में थोड़ा समय लगाना, आलोचना आदि चूलिका के उच्चारण करने में अधिक समय लगाना।
मूक दोष-गंगे के समान मुख के भीतर-भीतर पाठ करना अथवा वंदना करते समय हुंकार करना, अंगुली आदि से संकेत करना।
ददुर दोष—इतना जोर से पाठ करना जिससे दूसरे की आवाज का आच्छादन हो जाय अथवा स्पष्ट आवाज न हो ऐसी वंदना करना।
सुललित दोष-वंदना करते समय पाठ को गाकर पंचम स्वर से पढ़ना।
इस प्रकार कृतिकर्म के बत्तीस दोष का कथन किया है।
प्रत्येक निमित्त-नैमित्तिक क्रियाओं में कृतिकर्म के साथ कायोत्सर्ग किया जाता है उसके भी बत्तीस दोष हैं अतः कायोत्सर्ग का स्वरूप तथा उसके दोषों का कथन करते हैं
कायादि परद्रव्यों में स्थिर भाव को छोड़कर आत्मा का चिन्तन करना, काय सम्बन्धी क्रियाओं को छोड़ देना कायोत्सर्ग है।
खड्गासन या पद्मासन से बैठकर शरीर के ममत्व को छोड़कर आत्म चिन्तन करना कायोत्सर्ग है ।
परिमित कालीन और अपरिमित काल के भेद से कायोत्सर्ग दो प्रकार का है।
नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं के समय जो पच्चीस-सत्ताईस, एक सौ आठ,