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अंगपण्णत्ति तथा अन्त में पंच गरुभक्ति और शान्तिभक्ति पढ़ना चाहिए। इस प्रकार जितनी भी नित्य-नैमित्त क्रियाओं में भक्ति का कथन है उनका प्रारम्भ कृतिकर्म पूर्वक होना चाहिए। जैसे स्वाध्याय प्रारम्भ करना है तो "अथ अपररात्रिस्वाध्यायप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थभावपूजावन्दना स्तवसमेतं श्री श्रुतभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यह" ऐसी प्रतिज्ञा करके भूमि स्पर्श करते हुए नमस्कार करें, पश्चात् तीन आवर्तन और एक शिरोनति करके, णमो अरिहंताणं.............""इत्यादि सामायिक दण्डक पढ़कर अन्त में तीन आवर्त और एक शिरोनति करके सत्ताईस उच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग करें । पश्चात् भूमि स्पर्शात्मक नमस्कार करके तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। तत्पश्चात् "त्थोस्सामि" इत्यादि चतुर्विंशति स्तवन पढ़ें। स्तवन समाप्त होने पर तीन आवर्त एक शिरोनति करके लघु श्रुतभक्ति पढ़ें। तदनन्तर “अथ अपररात्रिस्वाध्यायप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचर्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थभावपूजास्तवसमेतं श्री आचार्यभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहं" ऐसी प्रतिज्ञा करके पूर्ववत्, तीन आवर्त, एक शिरोनति करके कायोत्सर्ग । पुनः त्थोस्सामि इत्यादि के प्रारम्भ में तीन आवर्त, एक शिरोनति और स्तुति के अन्त में तीन आवर्त और एक शिरनति करे, आचार्य भक्ति पढ़े और तदनन्तर स्वाध्याय प्रारम्भ करे।
इस प्रकार प्रत्येक क्रिया की भक्ति पाठ को कृतिकर्म । तीन आवर्त एक शिरोनति आदि करके कायोत्सर्ग करे और पुनः आवर्त कृतिकर्म करना चाहिए। ___ शास्त्र में कायोत्सर्ग और कृतिकर्म (वन्दना) के बत्तीस-बत्तीस दोष कहे हैं। उन दोषों को टालकर कृतिकर्म और कायोत्सर्ग करना चाहिए । वे बत्तीस दोष निम्न प्रकार हैं
अनाहत दोष-आदर भाव से रहित होकर वन्दना करना ।
स्तब्ध दोष-जाति आदि आठ प्रकार के मदों से युक्त होकर वन्दना करना।
प्रविष्ट दोष-अरिहंत आदि परमेष्ठियों के अति निकट बैठकर वन्दना करना जिससे उनकी आसादना हो।
परपीड़ित दोष-अपने हाथों से घुटनों का स्पर्श करते हुए वन्दना
करना।
दोलायित दोष-झूलने के समान अपने शरीर को हिलाते हुए वन्दना करना वा वन्दना तथा वन्दना के फल में संशय होना।