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तृतीय अधिकार
२०३ नैमित्तिक क्रियाओं की अपेक्षा बहुत पूर्व ( छह महीने के बाद पुनः प्रतिमा का दर्शन करना ) वा प्रथम बार दर्शन किया है वह अपूर्व चैत्य कहलाता है उस अपूर्व चैत्य की वन्दना क्रिया में तथा अष्टमी क्रिया में, पाक्षिक प्रतिक्रमण क्रिया में, अपूर्व चैत्य वन्दना का योग होने पर सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और अन्त में शान्तिभक्ति कृतिकर्म पूर्वक करना चाहिये। ___ अभिषेक वन्दना में सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंच गुरुभक्ति और शान्तिपूर्वक कृतिकर्म होती है।
अष्टमी क्रिया में, सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, सालोचना चारित्रभक्ति तथा शान्तिभक्ति का पठन कृतिकर्म पूर्वक करना चाहिये ।
चतुर्दशी क्रिया में सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, श्रुतभक्ति, पंचगुरु भक्ति और शान्तिभक्ति होती है। ___पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमण में सिद्धभक्ति तथा चारित्र प्रतिक्रमण के साथ चारित्र चतुर्विंशति तीर्थकर भक्ति, चारित्र आलोचना, गुरुभक्ति, लघु आचार्य भक्ति करना चाहिए । शिष्यों के द्वारा आचार्य भक्ति बोलकर आचार्य वन्दना करनी चाहिए। आचार्य सहित सारा संघ सिद्ध भक्ति, आलोचना सहित चारित्र भक्ति, केवल आचार्य लघु सिद्धभक्ति, लघु योगभक्ति पढ़कर “इच्छामि चारित्तायारो" इत्यादि पाठों का उच्चारण करके भगवान् के समक्ष (जिन बिम्ब समक्ष) अपने दोषों की आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण कर तीन बार (पंच महाव्रत आदि का) उच्चारण करके भगवान् के प्रति गुरुभक्ति, आचार्य सहित सर्व संघ लघु सिद्ध योगभक्ति पढ़कर प्रायश्चित्त ग्रहण कर शिष्यगण आचार्य भक्ति के द्वारा आचार्य वन्दना करें। तदनन्तर गणधर वलय, प्रतिक्रमण दण्डक, वीर भक्ति, शान्तिजिन कीर्तन सहित चतुर्विंशति जिनस्तवन, चारित्रालोचना युक्त आचार्य भक्ति, बृहद् आलोचना युक्त मध्य आचार्यभक्ति, लघु आलोचना युक्त लघु आचार्यभक्ति और अन्त में समाधिभक्ति पढ़ें।
अष्टाह्निक क्रिया में सिद्धभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्ति पढ़ना चाहिए ।
वर्षायोग धारण (प्रतिष्ठापन) किया में तथा निष्ठापन क्रिया में सिद्धभक्ति, योगभक्ति, 'यावंति जिन चैत्यायतनानि' आदि चैत्यभक्ति, स्वयंभू स्तोत्र की दो-दो तीर्थङ्कर स्तुति, चार दिशाओं में चार बार करना