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अंगपण्णत्ति ___ यह कृतिकर्म, नित्य और निमित्त के भेद से दो प्रकार के हैं। प्रतिदिन स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, देव वन्दना आदि क्रियाओं में जो कृतिकर्म (क्रियाकर्म) किया जाता है वह नित्य क्रियाकर्म है।
प्रतिदिन होने वाले २८ कायोत्सर्ग में होने वाली कृतिक्रम इस प्रकार हैं
पूर्वाल, अपराल, पूर्व रात्रि और अपररात्रि ये चार स्वाध्याय काल हैं।
स्वाध्याय के प्रारम्भ में लघु श्रुतभक्ति, लघ आचार्यभक्ति पढ़ने के लिए प्रारम्भ में सामायिक दण्डक और त्थोस्सामि पढ़ना ये दो कृतिकर्म हैं । स्वाध्याय की समाप्ति में लघु श्रुतभक्ति पढ़ना, इस प्रकार एक बेला की स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म होते हैं। अतः चार स्वाध्याय के बारह कृतिकर्म होते हैं। __ दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में चार बार कृतिकर्म होता है जिसका वर्णन प्रतिक्रमण में किया है अर्थात् सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमण भक्ति, निष्ठित करण, वीरभक्ति और चतुर्विंशति तीर्थङ्करभक्ति इनके चार कृतिकर्म हैं।
त्रिकाल वन्दना के छह कृतिकर्म होते हैं अर्थात् चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति सम्बन्धी दो कृतिकर्म (कायोत्सर्ग) होते हैं। तीन बार वन्दना के छह कृतिकर्म हैं।
रात्रि योग निष्ठापन का प्रातःकाल और रात्रि योग प्रतिष्ठापन संध्याकाल के समय योगभक्ति पढ़ते प्रारम्भ में कृतिकर्म करना-ये दो कृतिकर्म हैं । इस प्रकार आठ कृतिकर्म प्रतिक्रमण के, बारह स्वाध्याय के, छह वन्दना के और दो योग निष्ठापन प्रतिष्ठापन के होते हैं। इस प्रकार प्रतिदिन के अट्ठाईस कायोत्सर्ग के कृतिकर्म निश्चित हैं।
प्रत्याख्यान निष्ठापन (आहार करने जाते समय) क्रिया में सिद्धभक्ति, प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन (आहार कर लेने के बाद) क्रिया में सिद्धभक्ति, उपवास प्रत्याख्यान में स्वयं करे तो सिद्धभक्ति और आचार्य के समक्ष में सिद्धभक्ति और योगभक्ति पढ़कर उपवास ग्रहण किया जाता है। इस समय कृतिकर्म करना ये सब नित्य क्रियाओं के कृतिकर्म हैं तथा आचार्य वन्दना में लघु सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और आचार्यभक्ति कृतिकर्म पूर्वक होती है यह भी नित्य क्रिया है।