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(२) कृतिकर्म किसको करें अर्थात् कृतिकर्म के आराध्यदेव अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु इनके प्रतिबिम्ब, (चैत्य ) चैत्यालय ( जिन मन्दिर ) जिन वचन ( जिनशास्त्र) और जिनधर्म ये नत्र देव कृतिकर्म ( वन्दना ) करने योग्य हैं । अर्थात् इनका कृतिकर्म ( वन्दना ) करनी चाहिये ।
(३) कृतिकर्म की विधि - सर्व प्रथम कृतिकर्म करने के लिए आत्माधीनता होना परमावश्यक है क्योंकि पराधीनता से कृतिकर्म करने से फल की प्राप्ति नहीं होती ।
वन्दना करते समय गुरु, जिन जिनालय की प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना प्रदक्षिणा है |
प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि को तीन बार करना त्रिकृत्वा है अथवा एक ही दिन में जिन गुरु और ऋषियों की वन्दना तीन बार की जाती है इसलिए त्रिकृत्वा कहते हैं ।
भूमि पर बैठकर तीन बार किया जाता है अतः इसको निति कहते हैं वह इस प्रकार है - शुद्ध मन होकर, पैर हाथ धोकर और जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन से पुलकित वदन होकर, जिनेन्द्र भगवान् के सन्मुख बैठना यह प्रथम अवनति है । तदनन्तर उठकर जिनेन्द्र आदि की स्तुति करके बैठना दूसरी अवनति है । तदन्तर सामायिक दण्डक के द्वारा आत्मशुद्धिपूर्वक, कषाय सहित शरीर के ममत्व का त्याग करके, जिनेन्द्र देव के अनन्तगुणों का ध्यान करके चतुर्विंशति तीर्थङ्करों की वन्दना करके तथा चैत्य - चैत्यालय एवं गुरुओं का स्तुति करके भूमि पर बैठना तृतीय अवनति है ।
कृतिकर्म में चार शिरोनति और बारह आवर्त्त होते हैं - वह इस प्रकार हैं – सर्व प्रथम "अथ पूर्वाह्न देववन्दनाक्रियायां चैत्यभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम्' इस प्रकार क्रिया विज्ञापन पूर्वक ' णमो अरिहंताणं' आदि को लेकर सामायिक दण्डक के प्रारम्भ में तीन आवर्त और एक बार शिरोनति ( शिर का नमन) करे । इस प्रकार सामायिक दण्डक की समाप्ति में तीन आवर्त और एक शिरोनति करके कायोत्सर्ग करना, कायोत्सर्ग को समाप्त कर "त्थोस्सामि" के प्रारम्भ में तीन आवर्त्त और एक शिरोनति करना, पुनः "त्थोस्सामि " पाठ की समाप्ति और चैत्यभक्ति आदि के प्रारम्भ में तीन आवर्तन और एक शिरोनति करना चाहिये । इस प्रकार एक कृतिकर्म में बारह आवर्तन, चार शिरोनति, तीन नति और ती प्रदक्षिणा होती हैं ।